SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामायिक चिन्तन आर्षमार्ग के मूल स्वरूप का स्थितिकरण -शिवचरनलाल जैन भ० महावीर के शासन के अनुसार ही आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि, एक्को जिणस्स रूवं विदयं उक्किट्ठ सावयाणं तु। अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसण णत्थि ।। अष्टपाहुड़ एक जिनेन्द्र भगवान का यथाजात ज्ञानरूप, अर्थात् मुनि का रूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक, ऐलक, क्षुल्लिका) का रूप और तीसरा आर्यिका का रूप ये तीन लिंग ही दर्शनीय हैं। चौथा कोई लिंग वन्दनीय नहीं है। ___ज्ञातव्य है कि इन तीनों वेषों के साथ मयूर पिच्छिका जीवदया पालनार्थ अथवा संयमोपकरण रूप में होती है यह सर्वप्रमुख बाह्य चिन्ह है जिसके द्वारा हम श्रावकगण दर्शन करते हैं, वैयावृत्य करते हैं। यह मार्ग ही आर्षमार्ग कहलाता है। यह संघ व्यवस्था अनवरत चली आ रही है। ___ आ० भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली के समय घटित दुर्भिक्ष के समय श्वेताम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ जिसने आर्षमार्ग से विरुद्ध श्वेत-पट के साथ, कंबल, ऊन की पीछी के साथ ही मुनि अवस्था की अनार्ष घोषणा की। मूलसंघ दिगम्बर जैन संघ के अन्तर्गत श्रमण की यथार्थ रूप में रक्षा करते हुए अग्रणी महर्षियों ने अद्यावधि आर्षमार्ग को हम तक पहुँचाया है। अब से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई। उन्हें नग्नवेष सह्य नहीं था। धर्मान्धता के कारण मंदिरों व नग्न मूर्तियों का विध्वंस किया जाने लगा। यथाजात वेषधारी मुनियों के बिहार पर रोक
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy