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अनेकान्त/१८ विषयभूत आत्मा गृहीत होती है। उस समय व्यवहार गौण हो जाता है, अपलाप को प्राप्त नहीं। जैसे एक नेत्र से देखना हो तो दूसरा नेत्र मूंद लिया जाता है, फाड़ा नहीं जाता-नष्ट नहीं किया जाता। रागादि भाव कथंचित् निश्चय से हैं, कथंचित् वयवहार से -
जैसे व्यवहार नय से जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता है वैसे जीव रागादि का कर्ता नहीं है। क्योंकि द्रव्यकर्म तो पर द्रव्य हैं जबकि रागादि भाव आत्मा के निज भाव हैं अतः द्रव्यकर्म तथा भावकर्म में तारतम्य दिखाने के लिए आचार्य श्री कहते हैं कि रागद्वेषादि भाव कर्मों का कर्ता तो अशुद्ध निश्चयनय से है तथा द्रव्यकर्म का कर्ता असद्भूत व्यवहार नय से है। परन्तु अशुद्ध निश्चय नय भी शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा व्यवहार नय ही है। क्योंकि यद्यपि भावकर्म (रागादि) चेतन हैं तथापि शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा ये रागादि भाव अचेतन ही हैं। इस प्रकार असद्भूत व्यवहार की तुलना में तो रागादि भाव निश्चय से जीव के हैं तथा शुद्ध निश्चय की दृष्टि से वे ही रागादि व्यवहार से हैं। क्योंकि परद्रव्यग्राही व्यवहार की अपेक्षा रागादि ग्राहक नय निश्चय नय है तथापि शुद्ध निश्चय की अपेक्षा वही रागादि ग्राहक नय व्यवहार है। निश्चय तथा व्यवहार कथंचित् अभिन्न; कथंचित् भिन्न -
कथंचित् निश्चय नय तथा व्यवहार नय ये दोनों अभिन्न हैं क्योंकि दोनों एक ही श्रुतज्ञान से उत्पन्न हुए हैं, श्रुतज्ञान के भेद स्वरूप हैं, दोनों एक तराजू के दो पलड़ों की तरह हैं तथा दोनों जीव के “चित्” गुण स्वरूप हैं। कहा भी है-'पौद्गलिकः किल शब्दो द्रव्यं, भावश्च चिदिति जीवगुणः', अर्थात् द्रव्य नय पौद्गलिक शब्द रूप है तथा भावनय तो आत्मा का “चेतना गुण" ही है। अतः हे पण्डितो! नयों को भिन्न-भिन्न कहकर विवाद उत्पन्न मत करो। इस प्रकार अभेद होते हुए भी कथंचित् भिन्न-भिन्न है। स्वरूप, नाम, विषयभूत पदार्थ आदि की दृष्टि से नयों में भेद भी है। यथा निश्चय नय स्वात्मा को विषय करता है तो व्यवहार नय परपदार्थ तक को विषय