SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/१७ भेदग्राही, विकारग्राही तथा भिन्न द्रव्यों से सम्बन्धग्राहक व्यवहार अविषय हो जाते हैं, गौण हो जाते हैं। हमें चूंकि विकार छोड़ना है, हमें चूंकि परद्रव्यों के बन्धन (संबंध) से मुक्त होना है और निर्विकार-मुक्त होना है तो फिर विकारों तथा बन्धनों (सम्बन्धों) को विषय करने वाले नय यहाँ गौण कैसे नहीं होंगे? अवश्य होंगे। इसका अर्थ यह नहीं है कि विकार अवास्तविक हैं या दो द्रव्यों का संश्लेष सम्बन्ध मिथ्या है। परन्तु विकार तथा बंधन, नियम से आत्मा के दुःख के ही हेतु हैं अतः अध्यात्म के प्रकरण में, दृष्टि के प्रकरण में अभेद चैतन्य घन - त्रिकाली ध्रुव सामान्य चित ही विषय होता है। वहाँ भेद गौण; विकार तथा सम्बन्ध हेय हो जाते हैं। अभिप्राय यह है कि नव पदार्थों में से मात्र एक निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, निज परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है, अन्य सभी रागादि भाव द्रव्यकर्म तथा शरीरादिक तो हेय ही है। फिर वैसी स्थिति में रागादि भाव, द्रव्यकर्म तथा शरीरादिक सम्बन्ध को ग्रहण करने वाला व्यवहारनय उपादेय कैसे हो सकता है? भैया! चूंकि ज्ञानियों की दृष्टियों में बन्ध-बन्धन हेय है तथा मोक्ष उपादेय है तो फिर बन्ध (-भावकर्मबन्ध, द्रव्यकर्मन्ध तथा शरीरबन्ध) को विषय करने वाला व्यवहार नय कैसे उपादेय हो सकता है। बस इसी कारण व्यवहार को अध्यात्म के प्रकरण में हेय कहा है। तथा निश्चय को उपादेय। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि बन्ध मात्र आत्मा ही उपादेय है, ऐसा ज्ञान में निर्णय आना चाहिए। यही सम्यक्त्व का उपाय है। इतना विशेष है कि नय तो ज्ञान के अंश होते हैं, अतः वे हेय-उपादेय नहीं होते, उनका जो विषय है वही हेय-उपादेय होता है। इस सब उपर्युक्त कथन का सार यह है कि दृष्टि (अन्तदृष्टि) के समय तथा आत्मा में रमण (शुद्धोपयोग) के समय समस्त भेद, विकार, संबंधग्राहक व्यवहार हेय हो जाते हैं। वहाँ मात्र ध्रुव आत्मा विषय होता है जो अभेद, असम्बद्ध निर्विकार होता है। निश्चय तथा व्यवहार ये दो नेत्र हैं। एक नेत्र चला जाए तो अपशकुन माने जाते हैं। वैसे एक नय को छोड़ कर शेष एक को ही मानना उचित नहीं। दृष्टि-सम्यग्दर्शन या शुद्धोपयोग की-के समय निश्चय की
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy