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अनेकान्त/१६ करता है। निश्चय स्व पर आश्रित है तो व्यवहार पराश्रित है। इत्यादि विषयभेद है। नय तथा प्रमाण में कथंचित् भेद, कथंचित् अभेद -
नय भी ज्ञान-विशेष है और प्रमाण भी ज्ञान विशेष है। इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। हाँ, दोनों में विषय विशेष की अपेक्षा ही भेद है। जैसे नय द्रव्य के अनंत गुणों में से कोई सा विवक्षित अंश (गुण या पर्याय) विषय करता है। परन्तु प्रमाण उस अंश को तथा अन्य भी सर्व अंशों को ऐसे सकल अनन्त गुणात्मक सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण करता है, यही भेद है। इस प्रकार प्रमाण ज्ञान तथा नय ज्ञान सामान्य की अपेक्षा एक हैं तथा विषय की अपेक्षा ये भिन्न-भिन्न हैं। नय ज्ञान जानने वाले के अभिप्राय से सम्बन्ध रखता है पर प्रमाण ज्ञान जानने वाले का अभिप्राय विशेष न होकर ज्ञेय का प्रतिबिम्ब मात्र है। नयज्ञान में ज्ञाता के अभिप्रायानुसार वस्तु प्रतिबिम्बित होती है पर प्रमाण ज्ञान में वस्तु जो कुछ है वह प्रतिबिम्बित होती है।
-'स्याद्वाद' से साभार
अनुत्तरित-प्रश्न?
पिछले दिनों शिखरजी में अत्यन्त वैभवपूर्ण ताम-झाम के साथ आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधान अग्निकाण्ड के कारण खंडित हो गया। सुना है, उसी विधान को पुनः आरम्भ करके नितान्त सादगी से पूर्ण किया गया है। जब यह प्रतिष्ठा विधान सादगी से सम्पन्न हो सकता था तब ताम-झाम क्यों किया गया?
प्रश्न समाधान को शेष है कि क्या इस ताम-झाम के आयोजक एवं सहयोगी अग्निकाण्ड जैसी भयानक त्रासदी की जिम्मेदारी से बच सकते हैं?