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व्यवहार न कथंचित् सत्य, कथंचित् असत्य
- पं0 जवाहरलाल, भीण्डर
व्यवहारनय अपनी दृष्टि से, अपनी अपेक्षा, अपने स्थान पर सत्य ही है। हाँ, वह निश्चय नय की अपेक्षा ही असत्य है । वह सर्वथा असत्य नहीं है । सौगत दर्शन (बौद्ध) कहता है कि निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार असत्य है तथा वही व्यवहार व्यवहारनय की अपेक्षा भी सत्य नहीं है । परन्तु जैनदर्शन में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय असत्य है तथापि व्यवहार नय की अपेक्षा से व्यवहारनय सत्य है । व्यवहार नय गुण पर्याय कृत भेद, विकार तथा दो द्रव्यों का सम्बन्ध बताता है । यदि द्रव्य में अनन्त गुण-पर्यायों को नकारा जावे तो स्वयं द्रव्य भी असत्-शून्य हो जाएगा। देवसेनाचार्य कहते हैं कि एकान्त से एक (अभेद) रूप मानने पर सर्वथा एकरूपता (अभेद) होने के विशेष भेद ( गुणपर्यायकृत भेद) का अभाव हो जाएगा और विशेष का अभाव होने पर सामान्य (द्रव्य) का भी अभाव हो जाएगा और निर्विशेष सामान्य गधे के सींग के समान असत् ही होता है। सर्वथा अभेद (गुण-गाणी का अभेद आदि) पक्ष में गुण गुणी, पर्याय- पर्यायी आदि सम्पूर्ण पदार्थ एकरूप हो जाएँगे। सम्पूर्ण पदार्थ के एक रूप होने पर अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जाएगा और अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जाएगा । अतः गुणगुणी आदि भेद सत्य हैं । यदि T सर्वथा शुद्ध स्वभाव ही सत्य माना जाए तथा विकार को झूठ माना जाए तो संसार का ही अभाव हो जाएगा । किंच आत्मा को सर्वथा शुद्ध मानने वाले सांख्यमत का भी प्रसंग प्राप्त होगा, अर्थात् आत्मा को शुद्ध ही मानने पर जैनमत तथा सांख्यमत समान हो जाएँगे। जो ऐसा मानते हैं कि संसार
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