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अनेकान्त/१४ सार्वजनिक स्थान पर स्टेच्यू भी लगाये जा सकते हैं और उनसे प्रभावना भी हो सकती है किन्तु उनकी सुरक्षा करना समाज का विशेष दायित्व है। प्रायः देखा जाता है कि राजनेताओं के स्टेचुओं पर आये दिन विरोधी लोग उपसर्ग करते रहते हैं।
इस संदर्भ में उद्धरण के रूप में डायरी में संकलित दो श्लोक हम यहाँ प्रस्तुत करना चाहेंगे
एदं युगीनाचार्यादिषु पूर्वाचार्यगुणस्य सतां वीक्ष्य तत्पाटुकाद्वयं आचार्यादि प्रतिष्ठवत् प्रतिष्ठापयेत्
-आचार्य नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ (अध्याय १७) आचार्यादि गुणान् सतां वीक्ष्य यथायुगम् गुवदिः पादुकेभक्त्या तन्न्यास विधिनान्यस्येत्
____ -पं० आशाधर प्रतिष्ठापाठ (अध्याय ६ : श्लोक ३६) इन दोनों उद्धरणों के अनुसार आधुनिक (वर्तमान) आचार्यादिकों में पूर्वाचार्यों के समान गुणों का अवलोकन कर उनके चरण युगल अर्थात् चरण-पादुका आचार्यादि की प्रतिष्ठा के समान साक्षात् स्थापित करना चाहिये।
आज से लगभग पाँच दशक पूर्व कुन्थलगिरि में आचार्य श्री शान्तिसागरजी की मूर्ति स्थापना का प्रसंग उपस्थित हुआ था, तब जैनमित्र के एक अंक में साधुविशेष की प्रतिमा स्थापित करने के इस प्रयास को लौकिक (व्यवहार) एवं पारमार्थिक (आगम) दृष्टि से अनुचित कार्य कहा गया था।
दिवंगत एवं विद्यमान साधुओं की मूर्तियाँ स्थापित करने का यह प्रसंग क्या है, इसलिये आगम के आलोक में विज्ञजन इस संदर्भ में प्रकाश डालें, यह हमारा विनम्र निवेदन है। हम विधिवेत्ता नहीं हैं। हमारी जानकारी अपूर्ण हो सकती है। फिर हमारा कोई हठाग्रह भी नहीं है। आगम-प्रमाण सामने आने पर हम कोई भी बात स्वीकार करने के लिये सदा संकल्पित हैं।
आशा है, इस आलेख में व्यक्त हमारे सुझावों पर समाज गहराई से विचार ही नहीं करेगा, बल्कि प्रतिष्ठाओं के बिगड़ते स्वरूप पर अंकुश लगाने की पहल भी उसकी ओर से होगी।
अध्यक्ष : भा० दि० जैन शास्त्रि परिषद् १०४ नई बस्ती, फीरोजाबाद - २८३२०३ (उ० प्र०)