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अनेकान्त/१३ से जो भी भेंट करता है, उसे संतोषपूर्वक स्वीकार करना ही उचित है किन्तु क्या सर्वथा ऐसा ही होता है?
__(6) पंचकल्याणक का पंडाल समवशरण का प्रतिरूप है। वहाँ जूते-चप्पलें पहनकर प्रवेश करना या पैर पसारकर सोना क्या अविनय का कारण नहीं है?
संक्षेप में हम यह कहना चाहते हैं कि पात्रों की योग्यता एवं अर्थ की विशुद्धि को हमें सर्वाधिक महत्व देना चाहिये। बोलियाँ कम-से-कम हों तो उचित ही होगा। जैसे टी० वी० धारावाहिकों में बीच में आने वाले विज्ञापन दर्शकों का आनन्द कम करते हैं, उसी प्रकार बोलियों से भी प्रतिष्ठा में रस-भंग होता है। प्रतिष्ठोपरांत भी यदि संक्लेश के कारण उपस्थित हों तथा सुख-साता का अनुभव न हो तो इसे व्यसनयुक्त जीव और अन्याय की कमाई का ही फल मानना चाहिये।
जिस भूमि पर प्रतिष्ठा सम्पन्न होनी हो, उसका शोधन भी आवश्यक है। उस भूमि पर कूड़े-कचरे के ढेर या हड्डियों के टुकड़े आदि न हों, यह देख लेना चाहिये। वहाँ पहले से शुभ कार्य सम्पन्न होते रहे हों और उसके आस-पास का वातावरण निराकुलतापूर्ण हो तो श्रेयष्कर है। भूमि का प्रभाव भी प्रतिष्ठा-कार्यों पर पड़ता ही है। साधु की मूर्तियाँ : एक नम्र निवेदन
"मूर्ति वीतरागता का आदर्श होना चाहिये। प्रतिष्ठेय मूर्ति में व्यक्तिविशेष का आकार नहीं होता।"
-पं० नाथूलाल शास्त्री देवगढ़ में साधु, उपाध्याय एवं आचार्य परमेष्ठियों की प्रतिमायें मिलती हैं किन्तु उनमें से किसी की भी मुखाकृति व्यक्तिविशेष से नहीं मिलती। उन मूर्तियों से यदि पिच्छि-कमण्डलु का चिन्ह हटा दें तो उनकी
और देव-प्रतिमाओं की मुखाकृतियों में अद्भुत साम्य पाया जाता है। आगम में साधु की तदाकार मूर्ति का निषेध किया गया है। यही कारण है कि प्राचीन आचार्यों के चरण-चिन्ह तो मिलते हैं किन्तु मूर्तियाँ नहीं।
जहाँ व्यक्तिविशेष का आकार होता है, उसे मूर्ति नहीं स्टेच्यू कहते हैं। स्टेच्यू की प्रतिष्ठा और पूजा का विधान हमारे देखने में नहीं आया। हाँ, किसी