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कहाँ रुकेगा यह सिलसिला?
- पवचन्द्र शास्त्री
हम काफी अर्से से कहते रहे हैं कि जैन वीतराग का धर्म है। यह तभी जिन्दा रह सकता है जब व्यक्ति में वीतरागता के भाव जागृत होते रहें। उसकी राग क्रिया भी व्रत, तप, त्याग आदि शुभ में साधन हो। पर, आज सब उल्टा ही देखने में आ रहा है। वीतराग जिनधर्म के नेता सांसारिक सुख-सुविधाओं से सरावोर हो रहे हैं। यहाँ तक कि विद्वान् और कतिपय साधु तक भी इस दौड़ में शामिल हो गए हैं। एक साधु विद्वानों को सम्मान में स्वचित्र वाली घड़ी और पुरस्कार बंटवाता है तो दूसरा उससे भी आगे निकलकर विद्वानों को चारण-भाट बनाने की होड़ में लग जाता है।
यह कोई नई रीति नहीं है। समाज में ऐसी प्रवृत्ति पहले से ही जड़ जमा चुकी है। पहले इसने (समाज ने) विद्वानों को तरसा-तरसा कर दर-दर का भिखारी बनाया। इसे 15-20 रुपये तक में सामूहिक नौकर रखा। मरता क्या न करता-वह सब कुछ सहन कर अपनी धर्मशिक्षा पर सिर धुनता रहा। अन्ततः उसने अपने बच्चों को पण्डित न बनाने का दृढ़-निश्चय कर नियम लिया और उन्हें लेक्चरार, डॉक्टर, प्रोफेसर बनाया। तब भी समाज को चैन न आया। उसने इन्हें भी पुरस्कार आदि के प्रलोभनों से अपने चारण-भाट बनाने की प्रक्रिया जारी रखी ताकि वे इनके गुणगान करते रहें। इन्हें मालायें पहिनायें आदि; आज सब ऐसा चल रहा है। ऐसे कार्यकलापों से कौन-सा मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। यह तो साधु, धनिक या विद्वान् जानते होंगे। विद्वानों और साधुओं की ऐसी धन-लिप्सा इससे पहले न देखी न सुनी।
पहले श्रेष्ठिवर्ग समाज का धर्मनिष्ठ श्रावक होता था और अन्य लोग