________________
अनेकान्त/६ उनका अनुकरण करते थे, परन्तु अब तो सेठ साधुवर्ग का मुनीम जैसा बनकर रह गया है। कब-किसे-कितना दिया जाना है इसका निर्णय साधु करता है और इशारा मिलते ही सेठों में उसे पूरा करने की होड़ आसानी से देखी जा सकती है। मुनीम या व्यवस्थापक जैसी स्थिति को प्राप्त सेठ पिच्छि-कमण्डलु के सम्मुख विवश होकर 'हाँ' कहने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाता और वह अपनी थैली का मुँह खोल देता है। प्रतिफल में उसे सम्मान से लाद दिया जाता है। मंच पर उसके गीत गाये जाते हैं और साधु के जयकारों से दिशायें गूंज उठती हैं। साधु उन जयकारों की ध्वनि से आत्म-मुग्ध होकर प्रसन्न मन से आशीर्वाद देता है वह भी इस आशा से कि आगे भी यह हमारा गुणगान करेगा। सम्मानगृहीता को गुणानुवाद करने के अतिरिक्त अन्य मार्ग नहीं सूझता। इस प्रकार साधु-श्रेष्ठि-विद्वान् और श्रावकों के बीच धन एवं यशलिप्सा से परिपूर्ण लोकेषणा का दुश्चक्र चल पड़ा है जिसने समय पाकर गति पकड़ ली है तथा इस दुश्चक्र में दिगम्बरत्त्व घिस-पिटकर दम तोड़ रहा है। हम किंकर्तव्य विमूढ़ हैं कि यह सब क्यों हो रहा है? जहाँ पाक्षिक-नैष्ठिक श्रावक न हों, ठोस विद्वान् न हों वहाँ श्रावकशिरोमणि, दानवीर, समाजरत्न, विद्वत्रत्न जैसी उपाधियों का वितरण किया जाना स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं है तो और क्या है?
__ आजकल कतिपय साधुवर्ग की प्रवृत्ति किसी से छिपी नहीं है। सब जानते हैं कि साधु का अधिकांश समय योजना निर्माण और उसके क्रियान्वयन में व्यतीत होता है और आश्चर्य की बात यह है कि यह सब कुछ धर्म और संस्कृति के नाम पर हो रहा है। श्रेष्ठि वर्ग तो अपने धन का सदुपयोग/दुरुपयोग कर यशस्वी होते हुए समाज और धर्म का ठेकेदार बन रहा है और साधवर्ग आत्मकल्याण को छोड़कर कातर बुद्धि से सारा ध्यान अपनी शक्ति का तथाकथित रूप में सदुपयोग/दुरुपयोग कर रहा है। यह अन्तहीन सिलसिला कहाँ थमेगा इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। इस गतिमान वृद्धिंगत दुश्चक्र की परिणति निश्चित ही धर्म एवं संस्कृति के लिए आत्मघाती होगी क्योंकि साधु समाज को दिशा देता है तो सुधी श्रावक धर्मायतनों की रक्षा तथा स्थितिकरण में प्रवृत्त होता है। जब दोनों ही स्वार्थान्ध हो जावें तो उस धर्म