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________________ अनेकान्त/१७ जो श्लोक हे, वह भी त्रुटित है। वह ऐसा होना चाहिए मूलसंघे महासाधुर्लक्ष्मीचन्द्रो यतीश्वरः। तस्य च पट्टे वीरेन्दुविबुधो विश्व-वंदितः।। अब इस विसंगति का कारण कहा जाता है - 'कर्मप्रकृति' नामक मूल प्राकृत ग्रन्थ नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक (जो कर्मकाण्डकार नेमिचन्द्र सि. चक्रवर्ती से भिन्न ही कोई विद्वान् हैं) रचित हैं जिसमें कुल १६२ गाथाएं हैं। इसकी आद्य १५ गाथाएं गोम्मटसार कर्मकाण्ड की आद्य १५ गाथाओं को उठाकर ज्यों की त्यों लिख दी गई हैं। इसी तरह आगे भी कई दशक गाथाएँ ज्यों की त्यों कर्मकाण्ड से लेकर इसमें निक्षिप्त कर दी गई हैं। इस तरह जुगलकिशोर मुख्तार सा. के शब्दों में “कर्मप्रकृति" का अधिकांश शरीर आद्योपांत भागों सहित, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड से बना है। इस कर्मकाण्ड व कर्मप्रकृति में बहुत-सी गाथाओं के साम्य तथा दोनों के कर्ताओं के नाम साम्य से कर्मप्रकृतिटीकाकार ज्ञानभूषण को भी यह कर्मकाण्ड ग्रन्थ ही लगा। इसीलिए कर्मप्रकृति की ज्ञानभूषण रचित संस्कृत टीका को कर्मकाण्ड की संस्कृत टीका समझ लिया गया है। यह कर्मप्रकृति (मूल) विक्रम की १३वीं शती में रचित (संकलित) हुआ था। तथा इस पर संस्कृत टीका १७वीं शती में लिखी गई है। २. पंचसंग्रह (ज्ञानपीठ से प्रकाशित) के पृष्ठ ५५६ पर लिखा है-यदि आनुपूर्वी नाम कर्म न स्यात् क्षेत्रान्तरप्राप्ति जीर्वस्य न स्यात् अर्थ-यदि आनुपूर्वी नाम कर्म न होता तो जीव (विग्रहगति में) एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में नहीं जा सकता था। अतः क्षेत्र से क्षेत्रान्तर में ले जाने वाला कर्म आनुपूर्वी है। इस पर पं. कैलाशचन्द्र सि. शास्त्री सा. की समीक्षा-आनुपूर्वी नाम कर्म का जो यह लक्षण किया है वह दिगंबर परम्परा के शास्त्रों में हमारे देखने में नहीं आया। उक्त लक्षण तो श्वेताम्बर परम्परा से मेल खाता है। (जैन साहित्य का इतिहास १/४४७) इस पर पुनः समीक्षा : यह कथन दिगम्बर परम्परा से मेल खाता है अतः श्रद्धेय पं. कैलाशचन्द्र
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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