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अनेकान्त/१८
जी की उक्त समीक्षा विचारणीय है। धवल पृ. ६ में लिखा है-पुव्वसरीरं छंडिय सरीरंतमद्येत्तूण ट्ठिदजीवस्य इच्छिदगति गमणं कुदो होदि? आणुपुब्बीदो।
अर्थ-“शंका-पूर्व शरीर को छोड़कर, दूसरे शरीर को नहीं ग्रहण करके स्थित जीव का इच्छित गति में गमन किस कर्म से होता है? समाधान-आनुपूर्वी नामकर्म से (विग्रह गति में) जीव का इच्छित गति में गमन होता है।" (धवल ६ पृ. ५६ वीरसेन स्वामी) पचसंग्रह टीका में भी यही लिखा है।
३. भट्टारकश्रुतसागर सूरि ने अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की टीका श्रुतसागरी वृत्ति में लिखा है कि न्यायकुमुदचन्द्रोदय में प्रभाचन्द्र ने कहा है कि गुरुदत्त और पाण्डव आदि का उपसर्ग के द्वारा मुक्तिलाभ देखा जाता है, अतः अनपवायु का नियम नहीं है। (त. वृत्ति २/५३ की व्याख्या)
पं. कैलाशचन्द्र जी सि. शास्त्री की समीक्षा-“प्रभाचन्द्र जी के न्यायकुमुद चन्द्र में ऐसा कहीं भी नहीं लिखा है। असल में उक्त कथन प्रभाचन्द्र के तत्त्वार्थवृत्तिपद-टिप्पण में है।
देखो-(सर्वार्थसिद्धि (ज्ञानपीठ) अन्तप्रदत्त तत्त्वार्थ टिप्पण पृ. ४०५) श्रुतसागर जी के सम्मुख प्रभाचन्द्र का टिप्पण अवश्य था, सत्संख्या आदि सूत्र की व्याख्या में आपने त. टिप्पण को खूब अपनाया है। फिर भी विस्मरण वश ही उनसे उक्त भूल हो गई जान पड़ती है।"
हमारा निवेदन-इसी के अनुसार श्लोकवार्तिक भाग ५ पृ. २५७ (कुंथुसागर ग्रन्थमाला) आदि स्थानों पर संशोधन करना चाहिए।
४. सर्वार्थसिद्धि (ज्ञानपीठ) पृष्ठ ६६६ (अ. २ सूत्र ५) विशेषार्थ में लिखा है-“केवल नौ नोकषाय और सम्यक्त्व प्रकृति ये दस प्रकृतियाँ इनमें मात्र देशघाती स्पर्धक पाए जाते हैं।” अतः इन नौ नोकषायों का क्षयोपशम सम्भव नहीं है।"
समीक्षा-यहाँ परमश्रद्धेय पण्डित सा. भूल गए हैं। वस्तुतः बात यह है कि नौ नोकषाय में भी सर्वघाती स्पर्धक होते हैं। (जयधवल १३ (१५५ तथा जयघवल ५ पृ. १४२ तथा पृ. १४६ से १५१)
यथा-स्त्री पुरुष नपुंसक वेदों में एक स्थानिक से चतुः स्थानिक तक