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अनेकान्त/१४
जैन पत्रिकाओं के इतिहास का वह ऐसा संक्रान्तिकाल था जब “जैन हितैषी” का प्रकाशन बंद हो चुका था और जैन समाज में एक अच्छे साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। सिद्धान्त विषयक पत्र की आवश्यकता तो उससे भी पहले से महसूस की जा रही थी। इन दोनों आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए मुख्तार साहब ने लगभग सत्तर साल पहले, विक्रम संवत १९८६, ईस्वी सन् १६२६ में अपने समंतभद्र आश्रम से “अनेकान्त” पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। अनेक वर्षों तक उन्हें सम्पादक, प्रूफ रीडर, डिस्पैचर और हिसाब रखने वाले अकाउण्टेण्ट आदि के सारे काम स्वयं ही करने पड़े।
अनेकान्त के लिये आर्थिक सहयोग प्राप्त करना भी मुख्तारजी की प्रबल समस्या रही। प्रथम वर्ष ही प्राप्ति से डेवढ़ा व्यय हुआ। अंतिम अंक में उन्होंने लिखा था- “वर्ष भर की कुल आमदनी १६७८/- हुई और खर्च २६००/- हुआ। इस प्रकार पहले ही वर्ष ६२२/- का नुकसान उठाना पड़ा। इस पर अपनी चिन्ता जताते हुए मुख्तारजी ने लिखा
– “अनेकान्त को अभी तक किसी सहायक महानुभाव का सहयोग, प्राप्त नहीं है। ...जैन समाज का यदि अच्छा होना है तो जरूर किसी न किसी महानुभाव के हृदय में इसकी ठोस सहायता का भाव उदित होगा, ऐसा मेरा अंतःकरण कहता है। देखता हूं इस घाटे को पूरा करने के लिये कौन उदार महाशय अपना हाथ बढ़ाते हैं और मुझे प्रोत्साहित करते हैं। यदि नौ सज्जन सौ-सौ रुपया भी दे दें तो यह घाटा सहज ही पूरा हो सकता है।" -प्रथम वर्ष अंतिम अंक, पृष्ठ ६६८
किन्तु जुगलकिशोर मुखार की लेखनी में बड़ी शक्ति थी। उनके अभिप्राय निर्मल और समूची दिगम्बर जैन समाज के लिये अत्यंत हितकर थे। उन्हें समाज में समझा गया और शीघ्र ही उनके अभियान में श्रीमान् और धीमान, दोनों तरह के लोग बड़ी संख्या मे जुड़ते चले गये। समंतभद्र आश्रम करोलबाग से उठकर दरियागंज में आया। उसका अपना भवन बना और “वीर-सेवा मन्दिर" का उदय हुआ। स्व. बाबू छोटेलालजी कलकत्ता, स्व. साहु शान्तिप्रसादजी, ब्र. चन्दाबाईजी, बैजनाथजी सरावगी, श्री जुगमंदरदास