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अनेकान्त/४५
और डालियों से उलझते - सुलझते छह मास में छिन्न-भिन्न हो गया था । कुछ लोग कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक बीत जाने पर खंडलक नाम ब्राह्मण ने उसे ले लिया था । और दूसरे कहते हैं कि जब वह हवा से उड़ गया और भगवान ने उसकी उपेक्षा की तो लटकाने वाले ने फिर उनके कन्धे पर डाल दिया । इस तरह अनेक विप्रतिपत्तियाँ होने के कारण इस बात में कोई तत्व दिखायी नहीं देता । यदि सचेल लिंग को प्रकट करने के लिए भगवान ने वस्त्र ग्रहण किया था तो फिर उसका विनाश क्यों इष्ट हुआ ? उसे सदा ही धारण किए रहना था । यदि उन्हें पता था कि वह नष्ट हो जायेगा तो फिर उसका ग्रहण करना निरर्थक हुआ और यदि नहीं तो वे अज्ञानी सिद्ध हुए। यदि उन्हें चेलप्रज्ञापना वाञ्छनीय थी तो यह वचन मिथ्या हो जायेगा कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकर का धर्म आचेलक्य था " । और जो यह कहा कि जिस तरह मैं अचेलक हूँ, उसी तरह पिछले जिन भी अचेलक होंगे, सो इसमें भी विरोध आयेगा । इसके सिवाय वीर भगवान के समान यदि अन्य तीर्थकरों के भी वस्त्र थे तो उनका वस्त्रत्याग काल क्यों नहीं बतलाया गया । इसलिए यही कहना उचित मालूम होता है कि सब कुछ त्यागकर जब जिन स्थित थे तब किसी ने उनके ऊपर वस्त्र डाल दिया था और वह एक तरह का उपसर्ग था" ।
इसके बाद कहा है कि परिषहसूत्रों में (उत्तराध्ययन में) जो शीत, दंशमशक, तृणस्पर्श परिषहों के सहन के वचन हैं, सब अचेतन के साधक हैं, क्योंकि जो सचेल या सवस्त्र हें, उन्हें शीतादि की बाधा नहीं होती ।
भगवती आराधना की विजयोदया टीका में एक और जगह कहा है कि भूत और भविष्यत्काल के सभी जिन अचेलक हैं। मेरू आदि पर्वतों की प्रतिमायें और तीर्थंकर के मार्गानुयायी गणधर तथा उनके शिष्य भी उसी तरह अचेल हैं। इस तरह अचेलता सिद्ध हुई । जिनका शरीर वस्त्र से परिवेष्टित है, वे व्युत्सृष्ट प्रलम्वभुज और निश्चल जिन के सदृश जिनके प्रतिरूप नहीं हो सकते " ।
दिगम्बरत्व की खोज से साभार
1. “सुराष्ट्रायां गोमण्डलग्रामवास्तव्यः सप्तपुत्रः सप्तशतसुभटः 13 शतशकट