SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/३६ द्रव्यानुयोग में प्रधानता संवर-निर्जरा का भेद नहीं पड़ता, कारण कि सब गुणों की अवस्था होती है शुद्ध-अशुद्ध। परन्तु एक समय में एक ही अवस्था होगी। एक ही साथ में दो अवस्था अथवा मिश्र अवस्था द्रव्यानुयोग स्वीकार नहीं करता है जिस काल में ज्ञानगुण अशुद्ध परिणमन करता है उस काल में अज्ञान भाव ही है और जिस काल में शुद्ध परिणमन करता है उसी काल में ज्ञान भाव है। उसी प्रकार जिस काल में चरित्र गुण अशुद्ध परिणमन करता है उस काल में नियम से आकुलता है और जिस काल में चारित्र गुण शुद्ध परिणमन करता है उस काल में निराकुलता ही है। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्यानुयोग में संवरनिर्जरा का भेद नही है। द्रव्यानुयोग में गुणस्थान आदि भेद नहीं होता है गुणस्थान का भेद तो करणानुयोग में ही होता है। द्रव्यानुयोग पर पदार्थ को छोड़ने का उपदेश नहीं देता वह तो दुःख का कारण जो मिथ्यात्वादि आत्मा के परिणमन है उन्हें ही छोड़ने का उपदेश देता है, द्रव्यानुयोग में परपदार्थ साधक-बाधक नहीं होते हैं वहां साधक-बाधक मानना मिथ्यात्व है। पर पदार्थ को साधक-बाधक अन्य अनुयोग मानता है और उसी का नाम व्यवहार है इसीलिए शास्त्र की पद्धति व वर्णन व्यवस्था का ज्ञान करना बहुत जरूरी है। - 24 बृजदुलाल स्ट्रीट, कलकत्ता
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy