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आगम के आलोक में अनुयोग का कथन
-पं. आनंद शस्त्री “आसु"
शास्त्र में पुण्य भाव को धर्म बहुत जगाता है ऐसा कहा है, और पुण्य भाव को व्यवहार मोक्षमार्ग भी कहा है एवं पुण्य को परम्परा मोक्ष का कारण भी कहा है परन्तु नय का एवं अनुयोग का ज्ञान नहीं होने के कारण जीव शास्त्र पढ़ते हुए भी मिथ्यादृष्टि का मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। जैसे पुरुषार्थ चार कहा है-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। परन्तु धर्म का अर्थ समझता नहीं है एवं उसका परमार्थ अर्थ भी समझता नहीं है। मात्र शास्त्र का शब्द ज्ञान कर तोते की माफिक बोल देता है। इसी का परमार्थ अर्थ यह है कि धर्म का अर्थ पुण्य है, पुण्य से अर्थ अर्थात् धन मिलता है और अर्थ अथवा धन से भोग की सामग्री मिलती है और इन तीनों का अभाव करने से अर्थात् तीनों का त्याग करने से मोक्ष मिलता है। यह परमार्थ का ज्ञान न होने के कारण मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। इसीलिए सर्वप्रथम मोक्षमार्गी जीवों को अनुयोगों का ज्ञान करना चाहिए क्योंकि तीनों अनुयोग अलग-अलग कथन करते हैं और अज्ञानी इसका ज्ञान न होने के कारण शास्त्र स्वाध्याय करते हुए भी मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। द्रव्यानुयोग और करणानुयोग का निमित्त-नैमित्तक संबंध है
और द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग का कारण-कार्य संबंध है। यही ज्ञान न होने से चरणानुयोग के कथन को द्रव्यानुयोग समझ जाता है और द्रव्यानुयोग के कथन को चरणानुयोग समझ जाता है। यही मिथ्यात्व रहने की महान् भूल है इस भूल का नाश करने के लिए अनुयोग का ठीक-ठीक ज्ञान करना चाहिए।
चरणानुयोग - यह अनुयोग रागादि भाव छुड़ाने का अभिप्राय रखते हुए यह पर पदार्थ के त्याग का उपदेश करता है। यद्यपि पर पदार्थ का त्याग नहीं होता परन्तु उसके प्रति जो ममत्व भाव है उसी का त्याग करना कार्यकारी