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अनेकान्त/३०
में भी पश्चिमी देशों के अधिकांश विद्वत् जगत में जैन धर्म के विषय में कितनी एकांगी एवं विकृत धारणायें हैं। ईसाई जगत के दस सिद्धान्तों में प्रायः 70 प्रतिशत नकारात्मक बिन्दु हैं, फिर भी वे ऐसे नहीं माने जाते। लेकिन जैन सिद्धान्त नकारात्मक कहे जाते हैं। इसी प्रकार, जैन धर्म के एक-दो प्रारम्भिक आगमों के आधार पर उसे केवल मुनि धर्म कहना सही नहीं है, अन्य ग्रंथों एवं आगमों में भी श्रावकाचार का वर्णन है। श्रावक-श्राविकायें जैन संघ के महत्त्वपूर्ण अंग है और उनके कारण ही मुनि संस्था एवं संघ की जीवंतता बनी हुई है। अहिंसक व्यवसायों एवं कठोर आचार के अभ्यास से भी जैन प्रतिष्ठित हुए हैं। अस्तु, उपरोक्त विवरणों के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि इनको साधार निराकृत करने के लिये जैन विद्या मनीषियों द्वारा एक नवीन पुस्तिका लिखी जानी चाहिये। इसके लिये विदेशों में जैन-धर्म संप्रसारण में कार्यरत संस्थाओं को आगे जाना चाहिये। इस प्रकार की पुस्तक के लेखन में पिछले पचास वर्षों में जैन धर्म या विश्व धर्मों के विवरण वाली विदेशी पुस्तकों का संकलन एवं आकलन करना होगा। इक्कीसवीं सदी में जैन धर्म की यथास्थितिवादी मान्यताओं की गतिशीलता, सकारात्मकना एवं सुख-संवर्धन-क्षमता को प्रकाशित करना होगा। आशा है, जैनों के कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थान इस दिशा में आगे आवेंगे एवं विश्वस्तर पर सन्मति की जैन मान्यताओं के समुचित समाहरण में योगदान करेंगे।
जैन केन्द्र, रीवा (म.प्र.)
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। गत महीने उनका निधन हो गया है। वे अनेकान्त पत्र के वर्षों सलाहकार रहे हैं। वीर सेवा मंदिर की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि।