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अनेकान्त/३२
है। जैसे रस छोड़ देवे और राग न घूटे तो त्याग कोई कार्यकारी नहीं है, क्योंकि रस छोड़ना धर्म नहीं है परन्तु राग छोड़ना धर्म है।।
चरणानुयोग छग्रस्थ जीवों के बुद्धिगम्य बातों का ही व्याख्यान करता है। लोक का सर्व व्यवहार चरणानुयोग से ही चलता है। चरणानुयोग में गुणस्थान मात्र बाह्म प्रवृत्ति पर है जिसके आधार पर लोक की प्रवृत्ति चलती है। चरणानुयोग नोकर्म को बाधक-साधक मानता है। पात्रादिक का भेद चरणानुयोग में ही होता है जिस कारण चरणानुयोग में ही भक्ति आदि क्रियायें होती हैं। करणानुयोग में पात्रादिक का भेद नहीं है जिस कारण से करणानुयोग में भक्ति होती ही नहीं है। क्योकि जिस जीव का भाव ग्यारहवां गुणस्थान का है वही जीव अपने भाव से गिरकर समय मात्र में मिथ्यात्व आदि गुणस्थान में आ जाता है। जहां परिणामों की ऐसी स्थिति है वहां छद्मस्थ जीव परिणामों को देखकर भक्ति कर नहीं सकता, क्योंकि छद्मस्थ जीव का ज्ञानोपयोग असंख्यात समय में ही होता है इसीलिए भक्ति में प्रधानता चरणानुयोग की ही हैं
चरणानुयोग यही उपदेश देगा कि अभक्ष्य पदार्थ छोड़ो बाजार की चाट छोड़ो जल छानकर पीओ, रात्रि में सभी प्रकार के आहार का त्याग करो, घर का त्याग करो, वस्त्र का त्याग करो नग्न दिगम्बर मनि बनो। चरणानयोग की अपेक्षा मुनिलिंग सर्वथा निर्ग्रन्थ ही होता है जिसके पास में एक सूत्र मात्र परिग्रह है वह मुनि नहीं है परन्तु गृहस्थ है। चरणानुयोग की अपेक्षा नग्न दिगम्बर मुनि उत्तम पात्र है। ऐलक क्षुल्लक आर्यिका क्षुल्लिका, ब्रह्मचारी आदि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक है वे ही मध्यम पात्र हैं और अव्रती श्रावकपाक्षिक है वह जघन्य पात्र है।
चरणानुयोग की अपेक्षा जो नग्न दिगम्बर है जिसको व्यवहार से छह द्रव्य, नौ तत्व, पंचास्तिकाय, बंध मोक्ष के स्वरूप का ज्ञान है जो 28 मूलगुणों का आगमानुकूल पालन करता है। जो बाईस परीषहों को आगमानुकूल जीतता है, जो देव मनुष्य तिर्यच द्वारा आये हुए उपसर्गों को जीतता है उसको ही मुनि मानकर नमोऽस्तु कहना चाहिए। और उसकी ही नवधा भक्ति होती है। ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका, क्षुल्लिका की नवधा भक्ति में से पूजन छोड़कर आठ प्रकार की भक्ति होती है क्योंकि उसका पंचम गुणस्थान है और उनको