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अनेकान्त/२८
वामपंथी तक कह देते हैं।
जैनों का विकासमान एवं हासमान चक्रीय विश्व का सिद्धान्त भी मनुष्य को संकटापन्न बना देता है। इनका तर्कशास्त्र एवं प्रमाणशास्त्र सूक्ष्म है पर जटिल है। इनका स्याद्वाद का सिद्धान्त पाश्चात्य विद्वानों को प्रायः चक्कर में डाल देता है। पर यह नियतिवाद से मेल नहीं खाता। (नयवाद का उल्लेख भी कहीं नहीं मिला।
(3) जैन धर्म और महिलायें
जैन समुदाय में महिला - साध्वियां पुरुषों से प्रायः तीन गुनी हैं (फाइन्स), पर उनका स्तर पुरुष साधुओं से हीन माना जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में महिला साध्वियां भी मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं, पर दिगम्बर परम्परा इसे नहीं मानती। (4) जैन धर्म : समाज धर्म
यह तो प्रायः सभी विद्वान् मानते हैं कि महावीर ने तत्कालीन समाज में पर्याप्त सुधार किये और जागृति लाई, पर वे जैन धर्म को समाज धर्म मानते प्रतीत नहीं होते, क्योंकि समाज की सामान्य प्रवृत्तियाँ जैन सिद्धान्तों से काफी विषम होती हैं। फिर व्यक्तिवादी सिद्धान्त समाज पर लागू भी नहीं होते। श्वाइजर के अनुसार जैन धर्म में समाजोपयोगी सिद्धांत ही नहीं है और जो हैं, वे भी हिन्दू धर्म से समाहित हुए हैं। (5) जैन साहित्य
अनेक लेखकों ने श्वेताम्बर और दिगम्बर आगमिक साहित्य का उल्लेख किया है पर प्रो. वाशम ने स्पष्ट कहा है कि यह नीरस एवं पांडित्य प्रदर्शक है।
(6) त्रुटिपूर्ण कथन 1. सभी लेखक जैनों के दो मुख्य सम्प्रदायों का पहली सदी में उद्गम मानते
हैं और उनका उल्लेख भी करते हैं। कहीं-कहीं स्थानकवासी संप्रदाय