SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त / १० हैं, तो क्या ऐलक मानते हैं ? नहीं मान सकते हैं, तो क्या मुनि मानते हैं ? नहीं मान सकते; तो फिर पिच्छी हाथ में क्यों है ? यदि भट्टारक अपने आप को क्षुल्लक मानते हैं तो उन्हें आरंभ एवं परिग्रह की अनुमति नहीं दी जा सकती तथा वे मठ में भी नहीं रह सकते। उन्हें ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना आवश्यक है। उन्हें आरंभ - सारंभ की तथा उद्दिष्ट भोजन की अनुमति नहीं है । महान दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में क्षुल्लक पद का स्वरूप उल्लेखित किया है । वह मात्र चादर एवं लंगोटी ही अपने पास रखता है, पर वे भी फनाफन नहीं रहते । जो उद्दिष्ट भोजन ग्रहण करता हो अथवा मठाधीश हो वह क्षुल्लक नहीं है। ऐसी दशा में वह ऐलक या मुनि भी नहीं है तो फिर हाथ में पिच्छिका क्यों रखते हैं ? जिन लिंग के संबंध में मूलाचार आदि अधिकांश ग्रंथ हमने पढ़े हैं। पिच्छी को श्रमण का लिंग, चिन्ह माना गया है । इस चिन्ह को लेकर स्वयं को क्षुल्लक रूप कह कर के यद्वा तद्वा प्रचार करना जैन-दर्शन के लिये मान्य नहीं है । इस सब बातों को आप वर्षो से कैसे सुन रहे हैं ? क्या कर रहे हैं ? यह हमें समझ में नहीं आता । ड्रेस और एड्रेस मुख्य माने जाते हैं। शास्त्र में भी इसी प्रकार से मिलावट आने लग जाये, तो दिगम्बरत्व को कैसे सुरक्षित रखेंगे ? केवल जय बोलने मात्र से दिगम्बरत्व सुरक्षित नहीं रहने वाला है। आपस के मनमुटाव को बंद करके सोचना चाहिये । यदि जैन समाज नहीं सोचता है तब हम कह सकते हैं कि आप मेरे पास पत्र मत भेजा करो। पत्र भेजकर आप हमें अगुआ करना चाहते हैं। आप हमारी बात सुनते तक नहीं हैं । यह आप लोगो के लिये उचित नहीं लगता । अभी-अभी यहां भी कई पत्र आये थे । एक भट्टारक ने दिगम्बर मुनि को भट्टारक बनाने का संकल्प लिया था। जब मालूम पड़ा तो बात वापस ले ली। क्यों ली बताओ ? क्यों पीछे ली ? क्या एक भट्टारक मुनि महाराज को भट्टारक बना सकता है ? क्या एक वस्त्रधारी भट्टारक सीधे-सीधे क्षुल्लक बना सकता है ? दीक्षा दे सकता है ? क्या एक भट्टारक किसी को मुनि बनाकर के उसको क्षुल्लक बना सकता है यह ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर किसी के पास नहीं हैं । न श्रीमान्जी के पास, न धीमान्जी के पास । श्रीमान्जी के पास उत्तर तो है लेकिन वह डरते हैं । इनके कोई भी शास्त्रोक्त उत्तर नहीं मिलते। यदि कोई विद्वान् शास्त्रोक्त लिख भी देता
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy