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अनेकान्त/६
है। उसे विधान नहीं माना जा सकता। आज के भट्टारक न मुनि हैं, न ऐलक हैं, न क्षुल्लक हैं। क्योंकि क्षुल्लक-पद के योग्य ग्यारह प्रतिमाएँ निर्धारित की गई हैं। इन भट्टारकों के पास कौन-सी प्रतिमाएँ हैं, यह प्रश्न हमने उठाया ? कुछ भी जवाब नहीं दिया गया। कुछ लोग कहते हैं कि आज भट्टारकों की बड़ी
आवश्यकता है। हमने कहा 1008 भट्टारक बना लो। लेकिन उसका लिंग निर्धारित कर दो। वह आगम के अनुकूल होना चाहिये। नहीं तो उनके साथ समाचार करना, गलत व्यवहार हो जायेगा। यदि क्षुल्लक के रूप में व्यवहार होता है तो मार्ग दूषित हो जायेगा। समाज में विप्लव हो सकता है। हमारे पास संघ बहुत बड़ा है। उनके साथ कैसा व्यवहार समाचार किया जाये ? यदि ऐसा नहीं करते हैं तो जैनेतर लोग देखकर के हॅसेंगे। एक मुद्रा है, एक आदर्श है, एक पद होता है, इसका निर्धारण करो। इस बात को किसी ने भी आज तक नहीं सुना। बड़ी-बड़ी, लम्बी-चौड़ी बातें तो होती हैं, लेकिन आगम के आधार पर नहीं होती हैं। महाराजों के पास बैठक रखी जाती है। अनेक प्रकार की बातें समाज में की जाती हैं। किंतु इस बारे में सोचा नहीं गया।
तीन प्रमुख शीर्ष संस्थाएँ समाज की हैं। महासभा, महासमिति और परिषद् । यदि इस ओर इन्होंने नहीं देखा तो हम अपनी बात जनता अर्थात् (समाज) के समाने रख सकते हैं। तब एकमात्र (भारतवर्षीय नाम की) आप लोगों की उपाधि समाप्त हो जायेगी, ध्यान रखना। इसलिये कहीं भी एक मीटिंग रख ली और स्वयं को भारतवर्षीय कहने लगे। भारतवर्षीय तो समाज है। आप समाज से कोई संस्था खड़ी करना चाहते हैं, तो वह आगम के लिये सम्मत-प्रतिबद्ध होना चाहिये। आगम के बारे में कटिबद्ध होकर काम होना चाहिये। जैन-दर्शन से विपरीत चलेंगे, तो कौन इसका निर्वाह करेगा ? एकता के बल पर देव, शास्त्र गुरु रक्षा के लिए तीनों समितियों को काम करना चाहिये। इनकी आपस में जितनी वैमनस्यताएँ हैं, उन्हें आपस अन्दर ही सीमित रखना चाहिये। उन्हें अखबार इत्यादि तक नहीं ले जाना चाहिये। दिगम्बरत्व तब ही सुरक्षित रह सकता है, अन्यथा सुरक्षित नहीं रह सकता। इसका कोई जवाब नहीं दिया गया। मठाधीश होने वाला क्षुल्लक नहीं होता। इन भट्टारकों से हमारा पूछना है कि क्या वे अपने आप को क्षुल्लक मानते हैं ? नहीं मानते