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________________ भट्टारक स्वरूप समझें - आचार्य विद्यासागर कार्तिक वदी अमावस्या के दिन चातुर्मास वर्षायोग का निष्ठापन किया जाता है जिस दिन वीर भगवान का निर्वाण हुआ था । वर्षायोग के समय में श्रमण अपनी चर्या को साधना के लिये बाँध लेते हैं । जैन सिद्धांत और आचार-संहिता के अनुसार जैन श्रमण-साधक एक स्थान पर कहीं भी रुक नहीं सकते। जैन श्रावक साधु को रोकने की इच्छा तो करते हैं, लेकिन संतों ने इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया । काल तथा परिस्थिति के अनुसार कितनी भी विकट परिस्थितियाँ आ जायें, किंतु एक स्थान पर रुक कर के मोह के कारण वे आश्रय नहीं ले सकते। वे साधु-श्रमण कहलाते हैं। श्रमण जिस दिन इस क्रिया को छोड़ देंगे, उस दिन धर्म के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह आ जायेगा। यह कार्य बिना मोह के संभव नहीं हो सकता। काल, मान, परिस्थिति अथवा राजकीय सत्ताओं के कारण पूर्व में कुछ ऐसा समय आ गया था और उस समय कुछ परिधियाँ बँध गयी थीं। कुछ प्रदेशों में विहार होता था, कुछ में नहीं हो पाता था । उन थपेड़ों को सहन करते हुए भी परंपरा अक्षुण्ण रूप से आज तक कायम है। किसी-किसी क्षेत्र में अपवाद देखने को मिलते हैं, उसकी दशा किस ढंग से भयानक हुई है, वह समाज के सामने आज विद्यमान है? उसी का परिणाम है कि श्रमणों अर्थात् साधुओं के सामने विहार की एक समस्या आ गयी । इसी कारण भारत में एक प्रकार से भट्टारक परंपरा उद्भूत हो गयी । भट्टारक मठाधीश बन गये । कालांतर में श्रमणों ने एक स्थान पर रहते हुए भी वस्त्रों को अंगीकार कर लिया । श्रमण संस्कृति का उज्ज्वल साहित्य विद्यमान है, किंतु भट्टारकों की परंपरा के संबंध में कोई साहित्य अपने यहाँ उपलब्ध नहीं है । जो अपवाद मार्ग होता है उसके लिये कोई साहित्य की रचना नहीं की जाती
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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