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चेतने के क्षण
पर्यावरण प्रदूषण ने हमारी संस्कृति पर भी प्रहार किया है। अध्यात्म के नाम पर चल रहे प्रदूषण ने महामारी का रूप धारण कर लिया है और स्वाध्याय के अभाव में साधारण श्रावक भ्रमित हो गया है। आत्मा को देखने की रट लगाने वाले किसी मुमुक्षु ने आगमानुसार मुनिव्रत धारण किया हो-हमारे सुनने में नहीं आया है। स्वकल्याण के बजाए पर को कोरा उपदेश देना न तो उसके हित में है और न ही समाज के।
आज कई पिच्छी-कमण्डलु धारी दिगम्बर साधु निजी मठ निर्माण में पूरी तरह संलग्न हैं। कई बार तो ऐसी घटनाएं भी सुनने में आती हैं कि शर्म का सिर भी शर्म से झुक जाय। ऐसे कठिन समय में आचार्यों का मार्गदर्शन अति आवश्यक है।
दिगम्बर साधु को भट्टारक पद पर आसीन कराना साधु के मुक्तिमार्ग में बाधक तो है ही, जिनशासन के विरुद्ध भी है। आचार्य विद्यासागरजी ने इस दिशा में पहल कर धर्म के स्वरूप की रक्षा के निमित्त समाज को सचेत किया है। यदि हम अब भी चिरनिद्रा से नहीं जागे तो यह तथाकथित शिथिलता और व्यामोह वीतरागी जिनमार्ग को सर्वथा प्रदूषित कर देगा और भविष्य में जिनमार्ग के अनुरूप आचरण करने वालों के प्रति भी अनास्था का वातावरण बन जायेगा।
एक समय वह था जब नग्न साधु के विचरण पर लगे प्रतिबंध को हटवाने के लिए बैरिस्टर चम्पतराय जैन ने कई वर्षों तक अथक प्रयत्न किया था। कहीं ऐसी स्थिति पुनः न आ जाय कि उन्हें पुनः आकर मुकद्दमा लड़ना पड़े।
“अनेकान्त" ने सदैव ही जिनशासन की रक्षार्थ अग्रसर रहकर समाज को चेताया है। आज हमें व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर अपनी संस्कृति के प्रदूषण रूपी नासूर को दूर करना होगा अन्यथा
"हमारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में"
-संपादक