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सिद्ध-शिला ?
अनादि अकृत्रिम सिद्धशिला के आकार के संबंध में एक लेख 18 फरवरी 1999 के जैनगजट में प्रकाशित हुआ था। उसके संबंध में हमसे सम्मति मांगी गई थी । वास्तव में जो विषय हमारी इन्द्रियों और ज्ञान के गोचर नहीं और वर्तमान पंचम काल में जब इस क्षेत्र से मोक्षमार्ग ही बन्द है तब हमें आचार्यों के कथन के विषय में वीरसेन स्वामी के इस कथन को प्रामाणिकता देनी चाहिए कि 'एत्थ गोयमो पुच्छेयव्वो ।' हमें तो प्रसंगानुसार प्राचीनकाल से चले आए परंपरित आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट स्वरूप के विषय में तर्क- बुद्धि का आश्रय न लेकर आस्थागत मान्यता को मानना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि आचार्य समन्तभद्र जैसे आचार्यों ने भी सूक्ष्म - अन्तरित और दूरस्थ पदार्थो को सर्वज्ञ गम्य ही घोषित किया है। जब लोक की स्थिति अकृत्रिम है तो उसमें बदलाव कैसा ? सिद्धशिला के आकार में मतभेद को स्थान नहीं, क्योंकि शिला छत्राकार है और वह छत्र ऊर्ध्वमुख बताया गया है। प्रकाशित लेख में सभी आकृतियाँ अधोमुख हैं और आगम की दृष्टि में चिन्तनीय है । अधोमुख आकृति ऊर्ध्वमुख हो तो ठीक है । लेख में उल्लिखित प्रमाणों में 'तिलोयपण्णति' का प्रमाण उत्कट है, जिसमें 'उत्तान' शब्द को ग्रहण किया गया है और अन्य प्रमाणों में 'हरिवंशपुराण' का 'सोत्तानित' शब्द 'सिद्धान्तसार दीपक' का 'उत्तान' शब्द भी ऐसा ही संकेत (अर्थ) प्रकट करते हैं। वस्तुतः 'उत्तान' का अर्थ ऊर्ध्वमुख है - ( पाइयसद्दमहण्णव कोश) जो चन्द्राकार के साम्य ही है। कथन में भेद है, पर आकार में भेद नहीं ।
एक तर्क यह भी दिया गया है कि चन्द्राकार की स्थिति में पंचमुष्टिलोच और बैठने की स्थिति नहीं घटती । पर सिद्धों का इन दोनों क्रियाओं से कोई सम्बन्ध नहीं क्योंकि वे तो अरूपी आकाश प्रदेशों में रहते हैं । शिला से उन्हें क्या प्रयोजन ? साधारण शिला की आवश्यकता तो सांसारिकों की दृष्टि से है और सिद्ध-शिला नामकरण भी सिद्धों की अपेक्षा से ही पड़ा है 1