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अनेकान्त/38
तीर्थ-रक्षक - तीर्थस्थान को वह पवित्र भूमि मानते थे-तीर्थ जैसे एकान्त निर्जन स्थान पर बड़े-बड़े मकानों को बनाकर उसकी शान्ति को नष्ट करना उनकी दृष्टि में तीर्थ-आसादना थी। उनका मत था, जो भी जिनेन्द्र भक्त है वह तीर्थवन्दना करने का अधिकारी है। उन्होंने प्रयत्न किया कि तीर्थो के मुकद्दमें जो दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में चल रहे हैं, आपस में तय हो जायें, किन्तु भवितव्य ऐसा न था। आखिर दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर से उन्होंने निःशुल्क शिखरजी केस-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ केस आदि मुकद्दमों की पैरवी की-स्वतः अपना खर्च करके प्रिवी कौंसिल में अपील की पैरवी करने गये। उन्हीं की दलील को कि यह पवित्र तीर्थ किसी की निजी सम्पत्ति नहीं है-ये देवद्रव्य हैं, जिसपर प्रत्येक भक्त को वन्दना करने का अधिकार है, प्रिवी कौंसिल ने मान्य किया था।
उन्हें जैनियों की मुकद्दमेबाजी की मूढ़ता पर बड़ी चिढ़ थी। एक दफ़ा वह बोले, “भला देखो तो लाखों रुपया बरबाद किया जा रहा है। एक अजैन वकील
और एक अजैन न्यायाधीश हमारे धर्म के मर्म को क्या समझेगा और वह कैसे धार्मिक निर्णय देगा? फिर भी जैनी सरकारी न्यायालयों में न्याय के लिए दौड़ते हैं।"
श्वेताम्बर सम्प्रदाय से मुकद्दमा लड़ते हुए भी वे उनके मित्र थे-हज़ारीबाग में श्वेताम्बरीय कोठी में जाते और श्वेताम्बरीय नेताओं से मिलते-जुलते और उठते-बैठते थे। इस घनिष्ठता ने स्व. लाला देवीसहाय जी के दिल में बैरिस्टर सा० के प्रति शङ्का पैदा कर दी थी; किन्तु बैरिस्टर सा० ने स्पष्ट कहा था कि मेरा अहिंसाधर्म यह नहीं सिखाता कि मैं अपने विरोधियों से प्रेम न करूं। यदि आपको कुछ डर हो तो मैं मुकद्दमे की पैरवी से अलद्दा हो सकता हूं।' ऐसे स्पष्टवादी तीर्थरक्षक थे वे! बिहार सरकार से अनुबंध
जमींदारी उन्मूलन कानून के अनुसार पारसनाथ पर्वत बिहार सरकार में निहीत हो गया। श्वेताम्बरी मूर्तिपूजकों ने 1965 में बिहार सरकार से असत्य तथ्यों के आधार पर एक अनुबंध कर लिया जिसके अनुसार जंगल की आमदनी का 60 प्रतिशत मैनेजरी की उजरत उन्हें मिलना तय हुआ।
साहू शान्ति प्रसाद जैन को जैसे ही उक्त घटना का पता चला तो उन्होंने सरकार से अपने अधिकारों के रक्षा की पैरवी की। उन्होंने दिगम्बर जैन समाज का आहान किया और दिल्ली में समूचे देश से आए स्त्री-पुरुषों की एक रैली निकली। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री को दिगम्बर जैन समाज