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________________ अनेकान्त/25 जब उससे कहती हैं कि जाओ बेटे पापा को बुला लाओ तब वह नाना या दादा को नहीं वरन अपने पिता को ही बलाकर लाता है। उसे इस बात का ज्ञान है कि मम्मी ने 'पापा' शब्द मेरी अपेक्षा कहा है न कि अपनी अपेक्षा। वास्तव में स्याद्वाद वचन शैली के बिना जगत में वचन व्यवहार चल ही नहीं सकता। अनेकान्त में भी अनेकान्त -: प्रश्न उठता है कि क्या वस्तु मात्र ‘अनेकान्त' स्वरूप ही है? यदि ऐसा कहा जाय तो यहां भी ‘एकान्त' का प्रसंग आयेगा। जैनाचार्यों ने इसका समाधान किया - “अनेकान्तोऽपि अनेकान्तः प्रमाणनय साधनः। अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽिपतान्नयात् ।।' यहां आचार्यों ने अनेकान्त को भी अनेकान्त स्वरूप बतलाया। वे कहते हैं कि प्रमाण और नय का साधन होने से अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है। अनेकान्त भी दो प्रकार का होता है - 1. सम्यक् अनेकान्त 2. मिथ्या अनेकान्त अनेकान्त का प्रतिपादन करते समय इन्हीं दो भेदों को समझने में भूल हो जाती है। यहां मिथ्या अनेकान्त द्वेष है अप्रयोजन भूत है। उसकी न तो दार्शनिक धरातल पर कोई उपयोगिता है और न ही व्यवहारिक धरातल पर। 'ये भी सही वो भी सही', 'हम भी सही तुम भी सही' के नारे जो अनेकान्त को लेकर चल पड़े हैं वे अनेकान्त के सम्यक् और मिथ्या स्वरूप को न समझने के कारण ही उत्पन्न हो रहे हैं जिससे समाज में भ्रांति उत्पन्न हो जाती है। लोग कहते हैं जहां अनेकान्त है वहां मतभेद नहीं हो सकता। मतभेद तो वस्तु का स्वरूप है वह क्यों न होगा? क्या चांद और सूरज में भेद नहीं है? क्या नर और नारी में भेद नहीं है? क्या षड्द्रव्यों में भेद नहीं हैं? हाँ, मानवीय मूल्यों की दृष्टि से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जहां अनेकान्त हो वहां मतभेद नहीं हो सकता। क्या है मिथ्या अनेकान्त - मिथ्या अनेकान्त को समझने के लिए मिथ्याएकान्त को समझ लेना
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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