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________________ अनेकान्त / 24 अनेकान्त की मूल अवधारणा को समझे बिना उसके बारे में व्यर्थ मनोरंजक, आकर्षक दिखने वाली भाषणबाजी अनेकान्त के स्वरूप को न सिर्फ बिगाड़ती है अपितु उसके यथार्थ स्वरूप का बोध न होने से उसके प्रतिश्रद्धा को भी कम करती है । अतः सर्वप्रथम साधारण सरल शब्दों में हम अनेकान्त का वास्तविक स्वरूप समझें । क्या है अनेकान्त ? -: एक ही वस्तु में अनन्त धर्मगुण होते हैं वह किसी एक गुण या धर्म वाली नहीं होती । अब प्रश्न उठता है कि वस्तु के अनन्त धर्मों को क्या एक साथ कहा जा सकता है? यह कठिन समस्या है। ऐसा असंभव है । अतः इसके वचन व्यवहार के लिये अपेक्षावाद का विकल्प सामने आया। एक बार में वस्तु का एक ही धर्म कहा जा सकता है, सभी धर्म नहीं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे सभी धर्म वस्तु में हैं ही नहीं । वस्तु के अनन्त धर्म को मुख्य गौण की विवक्षा करके कथन किया जाता है। एक बार एक सभा में पांच समान स्तर के प्रतिष्ठित मंत्रियों को आमंत्रित किया गया। संचालक महोदय को समस्या हो गयी कि वह वाणी के द्वारा पहले किसका अभिनन्दन माइक पर बोले ? वह सभी का नाम एक समय में तो कह नहीं सकता । किसी-न-किसी का नाम तो आगे या पीछे लेना ही पड़ेगा। यही समस्या वस्तु के अनन्त धर्म के बारे में है - किसे पहले कहा जाय और किसे बाद में? अपेक्षावाद ने इसका समाधान दिया। इसे ही स्याद्वाद कहा जाता है । स्यात् + वाद। यहां स्यात् पद का अर्थ है कथंचित् या किसी अपेक्षा से और वाद का अर्थ है कथन । अर्थात् किसी अपेक्षा से कथन । वर्तमान में बड़े-बड़े दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर एवं विद्यार्थी भी जैन दर्शन के स्याद्वाद को “ "शायदवाद” के रूप में कहकर अपने ज्ञान की अल्पता का परिचय देते हैं । " शायदवाद” अनिश्चयात्मक ज्ञान है जबकि स्याद्वाद में जिस अपेक्षा कथन किया जाता है वह पूर्णतः सत्य और निश्चयात्मक होता है । हम प्रतिदिन इस स्याद्वाद का सहारा लेकर ही वचन व्यवहार करते हैं । यह बात अलग है कि उसे हम जानते नहीं हैं । हमारे परिवार में एक छोटा-सा बच्चा भी इसे समझता है । उसकी मम्मी
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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