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________________ "अनेकान्त सिद्धान्त का दुरुपयोग" -कुमार अनेकान्त जैन भगवान महावीर ने बहुत बड़े सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, वह है-'अनेकान्त' । अनेकान्त की दार्शनिक परिभाषा इस प्रकार है- “एक ही वस्तु में वस्तुत्त्वपने को निपजाने वाली-परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाली शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना ही 'अनेकान्त' कहलाता है। अनेकान्त की दार्शनिक परिभाषा ने व्यवहार के धरातल पर कदम रखा तो संतों, महात्माओं, आचार्यों, विद्वानों ने इसकी व्यवहारिक व्याख्यायें की और इसे जनसमुदाय की सामाजिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में उपयोगी बतलाया और अनेकान्त विश्व-व्यापक हो गया। जो समस्या उठती उसका समाधान अनेकान्त दे देता। वस्तु एक है उसके धर्म (गुण) अनन्त हैं। उसमें अनन्त शक्तियां हैं, किन्तु मानव की दृष्टि सीमित या पक्ष एक होने के कारण वह उसे अपने-अपने नजरिये से देखता है। अपनी दृष्टि को ही सत्य समझकर वस्तु में व्याप्त अन्य दृष्टिगत गुणों की अवहेलना करके वह शोर मचाता रहता है दूसरों से लड़ता रहता है। सारी समस्यायें, द्वेष, विद्रोह मात्र इसी कारण होते हैं कि हम किसी भी बात का मात्र वही एक पहलू देखते हैं जो हमारे स्वार्थों के करीब होता है। हमारा दृष्टिकोण भी सत्य हो सकता है तथा हमारे अलावा अन्य दृष्टिकोण भी सत्य हो सकते हैं ऐसा चिंतन ही अनेकान्तपरक चिन्तन कहलाता है जो कि विद्रोहों, झगड़ों और समस्याओं से हमें मुक्त रख सकता है। अनेकान्त को व्यापक बनाने के प्रयास तेज हुए हैं। उसकी प्रासंगिकता भी बढ़ी, लोकप्रियता भी बढ़ी। किन्तु उसे व्यापक बनाते-बनाते उसकी मूल अवधारणा पर भी आघात लगने लगा। वर्तमान में बड़े-बड़े संतों से लेकर बड़े-बड़े विद्वान् भी अनेकान्त का मतलब मात्र इतना समझते हैं कि “मैं भी सही, तुम भी सही", "तुम भी सही मैं भी सही" "ये भी सही, वो भी सही" । किन्तु यह मिथ्या भ्रांति है। अनेकान्त विषय पर कुछ लिखने या कहने से पूर्व हमें यह विचार करना चाहिए कि वास्तव में हमने अनेकान्त को समझा है या नहीं? उसको पढ़ा है या नहीं? उसके शास्त्रीय आधार को जाना है या नहीं?
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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