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अनेकान्त/22
रहा। उस घटना को लेकर कैसी-कैसी फब्तियां हम सबको सुननी पड़ीं, इसे दोहराने की जरूरत नहीं हैं। उसके बाद भी लगता है कि हमने कोई सबक नहीं सीखा। आये दिन कुछ साधु-संघों में स्त्रीजनित वासना की कहानियां खुसुर-पुसुर के रूप में लोगों की जुबानी जब सामने आती हैं तो मर्मान्तक पीड़ा होती है। सिर लज्जा से नीचा हो जाता है। हो सकता है कि ऐसी बातों में कोई सार या सत्य न हो किन्तु हमारा तो कहना यह है कि किसी भी साधु के चरित्र पर कोई उंगली ही न उठा सके, ऐसा उसका जीवन होना चाहिए। यदि मूलाचार के अनुसार प्रवृत्ति हो तो आरोप लगाने की किसी की हिम्मत ही नहीं हो सकती।
शीलभंग या गर्भपात की घटनाओं की उपेक्षा करना जेन संस्कृति के लिये घातक सिद्ध होगा। हमारा प्रथम विनम्र सुझाव तो यही है कि हमारे सभी पूज्य आचार्यवृन्द न तो इसे अनदेखा करें और न ऐसी घटनाओं पर मौन ही रहें। इस पाप में संलग्न कोई भी क्यों न हो, उसे दण्डित किया जाना चाहिए और यह दायित्व हमारे आचार्यों का ही है। आचार्यगण यह भी देखें कि मुनिसंघों में ब्रह्मचारिणियों और आर्यिकाओं के रहने की पृथक्-पृथक् व्यवस्था हो तथा सूर्यास्त के बाद साधुओं के साथ उनका मिलना-जुलना निषिद्ध हो। अन्य जो भी कदम उठाना आवश्यक हो, गम्भीर चिन्तन कर अविलम्ब आचार्यगण उस पर निर्णय लें।
यदि पूज्य आचार्य महाराज इस दिशा में सक्रिय न हों तो हमारा दूसरा सुझाव यह है कि इस तरह के अनाचार पर विचार करने के लिये अखिल भारतीय स्तर की तीनों संस्थाओं महासभा, महासमिति ओर परिषद् के जागरूक कार्यकताओं का एक महासंघ बने, जो री वर्धमान स्थानकवासी जैन महासंघ की तर्ज पर जैन समाज का एक महाधिवेशन बुलाकर आवश्यक निर्णय ले। घोर निन्दा और लोकापवाद से धर्म और संस्कृति को बचाने के लिये यह कटु उपचार हमें करना ही होगा। इत्यलम्।
-अध्यक्ष अ. भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद्