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अनेकान्त/१४
सत्याग्रही दृष्टि और सत्याग्रह-भाव भी तिरोहित हो रहा है। धन और ख्याति का व्यामोह कालदोष के ब्याज से यथार्थ तथ्य-कथ्य को समाप्त कर रहा है और आज का विद्वत्वर्ग कारवा गुजर जाने की बाट जोह रहा है। वह हर प्रसंग को ऊपर से गुजर जाने देने में विश्वास कर रहा है। ऐसी स्थिति में आगम रक्षा का पूरा भार यतिवर्ग ढो रहा है, जिससे उनकी साधना का भी स्खलन हो रहा है और विज्ञजन गहरी निद्रा में सोया हुआ है। ग्रन्थपरीक्षा-सम्यग्दृष्टि का पाथेय
मुख्तार सा. ने इस ग्रन्थ के माध्यम से तत्कालीन प्रभावी भट्टारक परम्परा में भट्टारकों द्वारा जैन सन्दर्भो में अपमिश्रण किये गए अनेक वैदिक प्रसंगों को सप्रमाण उद्घाटित किया था। परिणामस्वरूप उन्हें खत्म कर देने तक की धमकी दी गई, जिसका उन्होंने दृढ़ता से सामना किया।
आज प्रगट में भट्टारक परम्परा का अस्तित्व उस रूप में तो नहीं है जिस रूप में अतीत काल में था, फिर भी आजकल अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमे अपमिश्रण का कार्य धर्म और परम्परा की ओट में किया जा रहा है और उस ओर विज्ञ-जनों की गजनिमीलक दृष्टि निश्चित ही हास्यास्पद और चिन्तनीय है। कही रजनीश साहित्य का अपमिश्रण हो रहा है, तो कहीं व्याकरणाश्रित भाषा सुधार की सुनियोजित योजना के अन्तर्गत मूल-आगमों का स्वरूप निखारे जाने का प्रयत्न चल रहा है तो कहीं पर अपनी विद्वत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए ग्रन्थ सन्दर्भो को ही परिवर्तित कर दिया जा रहा है। यह सब अपमिश्रण की प्रक्रिया अनेकान्तमयी ज़िन-शासन की प्रभावना का अग तो नहीं ही बन सकता है। हॉ, इसे स्वार्थपूर्ति साधन दृष्टि और तदनुरूप आचरण की संज्ञा अवश्य दी जा सकती है। मुख्तार सा. जैसी निर्भीक तथ्यपरक कालजयी दृष्टि के आलोक में सांस्कृतिक स्वरूप को देखे जाने की आज सर्वाधिक आवश्यकता है। उनके द्वारा संचालित 'अनेकान्त' पत्र उसका जीवन्त प्रमाण है।