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अनेकान्त/१३
सामाजिक चेतना एवं धार्मिक न्याय के पक्षधर
सतत जागरूकता जीवन्त समाज की रीढ़ है और यह जागरूकता सामाजिक चेतना के कारण आती है। सामाजिक चेतना को स्फूर्ति प्रदान करने में सामाजिक न्याय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारतीय सविधान भी सामाजिक न्याय की महत्ता को स्वीकार करता है, परन्तु वास्तविक जीवन में सामाजिक न्याय से समाज व देश अभी भी कोसो दूर है। मुख्तार सा की दृष्टि में सामाजिक न्याय मात्र वचन तक सीमित नही होनी चाहिए वरन् वास्तविक जीवन मे जीवन्त होनी चाहिए। यद्यपि वे कृपण थे परन्तु अन्याय उन्हे मनसा वाचा कर्मणा सह्य नही होता था। मेरी भावना मे ही उनके निःस्वार्थ न्यायप्रियता की एक झलक मिलती है -
कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे। अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे, तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पग डिगने पावे।।
उपर्युक्त पद्याश उनकी न्यायप्रियता की ससूचक ही नही है अपितु श्रमण सस्कृति के सर्वोच्च आदर्श और मानदण्ड-निर्भयता, निर्लोभवृत्ति, सत्याचरण को आत्मसात् करता हुआ तथा तदनुरूप बनने के लिए प्रेरित करता है। आज के सन्दर्भ मे उक्त मानदण्ड मात्र चर्चा के विषय रह गए हैं या आदर्श वाक्य मे प्रयुक्त होने तक ही उनकी सीमा रह गई है। सम्पूर्ण राजनैतिक-सामाजिक परिवेश लोभ मे आकण्ठ निमग्न है और अब तो धार्मिक क्षेत्र भी पूरी तरह लोभ से आवृत्त हो चुका है। यद्वा तद्वा व्याख्याये, भाष्य और कल्पित अवधारणाओ को आगम के परिप्रेक्ष्य मे सुस्थापित करने का विधिवत् सुनियोजित दुष्चक्र प्रवहमान है। इस दुश्चक्र के मूल में है – धर्म की आड मे धनार्जन एव ख्याति की प्रबल आकाक्षा। इस अतृप्त आकांक्षा को पूरा करने के लिए यथातथ्य रूप मे कथनशैली का अभाव तो हो ही रहा है साथ ही