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अनेकान्त/६
इस गाथा की छाया के अनुसार ऐकान्तिक अर्थ करने के कारण तथा मूल गाथा के प्रतिकूल होने से विवादास्पद रहा है। जयसेन को भी उपर्युक्त अभूतार्थ अर्थ स्वीकार्य नही था इसीलिए उसका निम्न विकल्प तात्पर्यवृत्ति टीका मे प्रस्तुत किया है।
'द्वितीय व्याख्यानेन पुन ववहारो अभूदत्थो व्यवहारोऽभूतार्थो भूदत्थो भूतार्थरच देसिदो देशित. देशित. कथित. न केवलं व्यवहारो देशित. सुद्धणओ शुद्धनिश्चयोपि । दु शब्दादय. शुद्ध निश्चयनयोपीति व्याख्यानेन भूताभूतार्थभेदेन व्यवहारोऽपि द्विधा, शुद्धनिश्चयाशुद्धनिश्चियभेदेन निश्चय नयोपि द्विधा इति नयचतुष्टयम् ।।
द्वितीय व्याख्यानुसार व्यवहार को अभूतार्थ और भूतार्थ कहा है। मात्र व्यवहार ही नहीं, अपितु शुद्ध निश्चयनय भी भूतार्थ है। दु पद से सकेतित है कि जिस प्रकार भूतार्थ और अभूतार्थ के भेद से व्यवहार दो प्रकार का है उसी प्रकार शुद्ध निश्चय और अशुद्ध निश्चय के भेद से निश्चयनय के भी दो भेद है। इस प्रकार भूतार्थ कोटिक चार नय है।
सस्कृत छाया मे सस्कृत व्याकरण के 'एडः पदान्तादति' सूत्र के अनुसार अ खण्डाकार का प्रयोग पूर्वरूप मानकर हुआ है। जबकि प्राकृत के अनुसार पूर्वरूप नहीं होता। यदि पूर्वरूप होता तो समयपाहुड़ की निम्नलिखित गाथाओ मे भी 'ओकार' के बाद 'अकार' होने से वहां भी पूर्वरूप होना चाहिए था। जो कि नही हुआ है। जैसे
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्ज भासं विणा दु गाहेदु तो त अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयन्तेण
गाथा-१७ एवमेव ववहारो अज्झ वसाणादि अण्णभावाण
गाथा-४८ तिविहो एसवओगो अप्पवियप्प करेदि कोहोह
गाथा-९४ तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्प करेदि धम्मादी
गाथा-९५ जई एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी जदा होहि
गाथा-१२१ णाणिस्स दु णाणमओ अण्णाण मओ अणाणिस्स गाथा-१२६ उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेई अविरमण गाथा-१३३ कम्मोदयेण जीवो अण्णाणी होहि णादव्वो
गाथा-१६२ हेदु चदुवियप्पो अट्टवियपस्स कारण भणिद
गाथा-१८७ अण्णाण तमोच्छण्णो आद सहाव अयाणतो
गाथा-१८५
गाथा-८