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अनेकान्त/७
अण्पाण झायतो दसण णाण मओ अणण्णमओ
गाथा-१८९ जहमज्ज पिबमाणो अरदिभावेण ण पुरिसो
गाथा-१९६ अप्पाण मयाणतो अणप्पय चावि सो अप्पाण तो
गाथा-२०२ मज्झ परिग्गहो जदि तदो अहमजीवद तु गच्छेज्ज गाथा-२०८ अपरिग्गहो अणिच्छो
गाथा-२१० अपरिग्गहो अणिच्छो
गाथा-२११ अपरिग्गहो अणिच्छो
गाथा-२१२ अपरिग्गहो अणिच्छो
गाथा-२१३ सो भूदो अण्णाणी
गाथा-२५० जो अप्पणादु मण्णदि
गाथा-२५३ सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण
गाथा-२६८ सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण
गाथा-२६९ कुव्वतो वि अभव्वो अण्णाणी
गाथा-२७४ मोक्ख असद्दहतो अभवियसतो दु जो अघीएज्ज गाथा-२७४ बधो छेदे दव्वो सुद्धो अप्पा य घेतव्वो
गाथा-२९५ बधो छेदे दव्वो सुद्धो अप्पा य घेतव्वो
गाथा-२९६ बधो छेदे दव्वो सुद्धो अप्पा य घेतव्वो
गाथा-२९७ बधो छेदे दव्वो सुद्धो अप्पा य घेतव्वो
गाथा-२९८ बधो छेदे दव्वो सुद्धो अप्पा य घेतब्बो
गाथा-२९९ जाणतो अप्पय कुणदि
गाथा-३२६ भणिदो अण्णेसु
गाथा-३६५
-समयसार उद्घृत (४) उक्त सन्दर्भो से फलित होता है पूर्वरूप का नियम सस्कत का है और प्राकृत में प्रयुक्त नहीं होता। कदाचित् 'ओ' के बाद 'अ' होने पर 'अ' पूर्वरूप इष्ट होता तो अनादि मूलमत्र मे ‘णमोअरहंताणं' के स्थान पर 'णमोऽरहंताणं पाठ होता।
ऐसा प्रतीत होता है कि टीकाकार आचार्य श्रीअमृतचन्द्र ने सस्कृतछाया का अनुगमन करते हुए ही 'व्यहारोऽभूतार्थो मानकर टीका की है। ध्यान देने योग्य बात है कि जिस प्रकार आचार्य श्री जयसेन ने प्राकृत पदानुसारिणी टीका की है