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अनेकान्त/९
यह एक अनुमान है। इस अनुमान मे कपिलादि पक्ष है, सर्वज्ञत्व और अनाप्तत्व साध्य है तथा कपिलादि के उपदेश मे सर्वज्ञता और आप्तता का कारणभूत किसी प्रमाण विशेष का न होना साधन है। इस अनुमान मे व्यतिरेक दृष्टान्त इस प्रकार से दिया गया है___ जो सर्वज्ञ और आप्त होता है वह ज्योतिर्विद्या (नक्षत्र विद्या) आदि का उपदेश देता है, जैसे ऋषभवर्द्धमानादि । यहाँ ऋषभवर्द्धमानादि का जो व्यतिरेक दृष्टान्त दिया गया है वह व्यतिरेक दृष्टान्त न होकर सन्दिग्ध साध्य व्यतिरेक नामक व्यतिरेक दृष्टान्ताभास है। व्यतिरेक दृष्टान्त मे साध्य का व्यतिरेक (अभाव) निश्चित होना चाहिए। किन्तु यहाँ ऋषभादि मे साध्य (असर्वज्ञत्व तथा अनाप्तत्व) का अभाव निश्चित न होकर सन्दिग्ध है। अर्थात् ऋषभादि मे निश्चित रूप से सर्वज्ञत्व और आप्तत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। वे सर्वज्ञ और आप्त हो भी सकते है और नही भी। इसका कारण यह है कि कोई पुरुष नक्षत्र विद्या का उपदेश देने मात्र से सर्वज्ञ
और आप्त नही हो सकता है। नक्षत्र विद्या का ज्ञान तो नैमित्तिक और व्यभिचारी है। वह ऋषभादि मे सर्वज्ञत्व का अनुमान नही करा सकता है। असर्वज्ञ होने पर भी नक्षत्र विद्या का उपदेश देने में कोई विरोध नहीं है। व्यतिरेक दृष्टान्ताभास के प्रकरण मे आचार्य धर्मकीर्ति तथा धर्मोत्तर ने यही बतलाया है। उन्होने ऋषभादि को कभी भी सर्वज्ञ और आप्त नही माना है।
उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त अनुमान मे व्यतिरेक दृष्टान्त देकर जिस किसी ने भी ऋषभादि को सर्वज्ञ और आप्त सिद्ध करना चाहा है उसने उन्हे सर्वज्ञ और आप्त सिद्ध करने के लिए ज्योतिर्ज्ञानादि के उपदेश को हेतु बतलाया है। लेकिन इतने मात्र से वे सर्वज्ञ और आप्त नही हो सकते है। क्योकि वर्तमान मे भी ज्योतिषशास्त्र के विद्वान ज्योतिषी नक्षत्र विद्या का उपदेश देते है तथा सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण आदि की भविष्यवाणी करते है। किन्तु इतने मात्र से वे सर्वज्ञ या आप्त नहीं कहे जा सकते है।
माननीय लेखक डॉ सुदीप जी ने पत्रिका के पृष्ठ २० पर लिखा है-“परम नास्तिक चार्वाको ने भी जैन श्रमणो को नग्न ही कहा है। नग्न श्रमणक दुर्बुद्धे