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अनेकान्त/२४
खजपादस्य खण्डोऽयं हिमदग्धस्य पावकः । स्खलितस्यावटे पातः प्रायोऽनर्था बहुत्वगाः।।
(पद्मचरित, ४४/१४५-१४६)
अर्थात्, जबतक मैं एक दुःख के अन्त को प्राप्त नही हो पाता हूँ, तब तक दूसरा दुःख आ पडता है। अहो । यह दुख-रूप सागर बहुत विशाल है। प्राय देखा जाता है कि जो पैर लॅगडा होता है, उसी में चोट लगती है और जो तुषार से सूख जाता है, उसी मे आग लगती है। और फिर, तो फिसलता है, वही गर्त मे गिरता है। अनर्थ प्राय बहुत प्रकार से आते है।
'अभिज्ञानशाकुन्तल' में इन्द्र के सारथी मातलि का उल्लेख है ।१२ 'पद्मचरित' में भी राम को इन्द्र तथा कृतान्तवक्त्र सेनापति को मातलि कहा गया है।
'अभिज्ञानशाकुन्तल' में दुष्यन्त को दी गई शुकन्तला को सुशिष्य को दी गई विद्या से उपमित किया गया है वच्छे, सुसिस्सपरिदिण्णा विज्जा विअ असोअणिज्जासि संवुत्ता।
(अभिज्ञानशाकु, पृ १७७) इसी भाव को अभिव्यक्ति 'पदमचरित' मे भी है, जिसमे कहा गया है कि यदि शिष्य शक्ति से सहित है, तो उससे गुरु को कुछ भी खेद नही होता, क्योकि सूर्य द्वारा नेत्रवान् पुरुष के लिए समस्त पदार्थ सुख से दृष्टिगत करा दिये जाते हैं। पात्र के लिए उपदेश देनेवाला गुरु कृतकृत्यता को प्राप्त होता है, क्योकि जिस प्रकार उल्लू के लिए सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया गया गुरु का उपदेश निरर्थक होता है
न हि कश्चिद् गुरोः खेदः शिष्ये शक्तिसमन्विते। सुखेनैव प्रदर्श्यन्ते भावाः सूर्येण नेत्रिणे।। (पद्मचरित, १००/५०) उपदेशं ददत्पात्रे गुरुर्याति कृतार्थताम्। अनर्थकः समुद्योतो रवः कौशिकगोचरः।। (पद्मचरित, १००/५२)
इस प्रकार, रविषेण ने अनेक स्थानो पर कालिदास के भावों का समाहरण किया है।