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अनेकान्त / २३
अन्तः कृत्वा शिशुगणमिमे कामिनीभिः समेतं दृरन्यस्तप्रचलनयना भूरिशः सावधानाः । किञ्चिद् दूर्वाग्रहणचतुराः प्रान्तयाताः कुरङगाः पश्यन्ति त्वां विपुलनयनालम्बितः कौतुकेन ।। (पद्मचरित ४२ / ४२ ) सुन्दरि पश्य वराहं दंष्ट्रान्तरलग्नमुस्तमुन्नतसत्त्वम् ।
अभिनवगृहीतपङ्कं गच्छन्तं मत्थरं सघोणम् ।। (पद्मचरित ४२ / ४३ ) 'अभिज्ञानशाकुन्तल' के द्वितीय अक में भैसा द्वारा तालाब के जल को बार-बार उछालने की कल्पना है । 'पद्मचरित' के भी ४२वे पर्व में भैंसा वज्र के समान सींगों द्वारा बामी के उच्च शिखर को भेद रहा है : गाहन्तां महिषा निपानसलिलं श्रृङर्मुहुस्ताडितं । ।
(अभिज्ञानशाकु. २१६) वहन्नसौ दर्पमुदारमुच्चैर्वल्मीकश्रृडगं गवली सुनीलः । लीलान्वितो वज्रसमेन धीरं भन्ते विषाणेन लसत्खुराग्रः ।।
(पद्मचरित ४२ / ३८)
'शाकुन्तल' के प्रथम अक मे लता और वृक्ष के जोड़े के मिलन की कल्पना की गई है । 'पद्मचरित' के ४४वे पर्व मे भी लता द्वारा कल्पवृक्ष का आलिगन प्रदर्शित है । "
'अभिज्ञानशाकुन्तल' मे कालिदास ने शकुन्तला को विधाता की क्लिक्षण स्त्रीरत्न- सृष्टि कहा है। 'पद्मचरित' मे भी राम सीता को स्त्रीविषयक अपूर्व सृष्टि कहते हैं
स्त्रीरत्नसृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे (अभिज्ञानशाकु, २१६ ) अपूर्वा योषिती सृष्टिर्दृष्टा स्यात् काचिदङ्गना । ।
(पद्मचरित ४४ / ११७) 'अभिज्ञानशाकुन्तल' के द्वितीय अंक के प्रारंभ में 'गण्डस्य उवरि पिण्डओ सवृत्तो" (फोडे पर फोडा होना) मुहावरे का प्रयोग किया गया है, जिसका तात्पर्य एक कष्ट पर दूसरा कष्ट आना है। 'पद्मचरित' में भी इसी भाव का विवेचन है। राम कहते हैं :
दुःखस्य यावदेकस्य नावसानं व्रजाम्यहम् । द्वितीयं तावदायातमहो दुःखार्णवो महान् ।।