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अनेकान्त/२२
अर्थात्, राजाओं को चारों वर्णो से जो धन प्राप्त होता है, वह नश्वर है, किन्तु तपस्वी जन हमें जो तपस्या का छठा भाग देते हैं, निश्चय ही वह कभी नष्ट नहीं होता।
उपर्युक्त अभिप्राय एक अन्य प्रसंग में, 'पद्मचरित' मे इस प्रकार वर्णित है । यस्य देशं समाश्रित्य साधवः कुर्वते तपः। षष्ठमंशं नृपस्तस्य लभते परिपालनात्।। (पद्मचरित, ७/२८)
अर्थात्, जिस देश का आश्रय पाकर साधुजन तपश्चरण करते हैं, उन सबकी रक्षा के कारण राजा तप का छठा भाग प्राप्त करता है।
'अभिज्ञानशाकुन्तल' के छठे अंक में शकुन्तला का चित्र बनाकर दुष्यन्त कहता है ।
यद्यत् साधु न चित्रे स्यात् क्रियते तत्तदन्यथा। तथापि तस्या लावण्यं रेखया किञ्चिदन्वितम्।।
(अभिज्ञानशाकु.. ६/१४) चित्र में जो सुन्दर नहीं है, वह सब मेरे द्वारा ठीक किया जा रहा है। फिर भी, उस (शकुन्तला) का सौन्दर्य रेखाओं के द्वारा यत्किंचित् ही प्रकट हो पाया है।
'पदमचरित' में भी नारद सीता का चित्र भामण्डल को दिखाकर कहते हैं आकारमात्रमत्रतत्तस्या न्यस्तं मया पटे। लावण्यं यत्तु तत्तस्यास्तस्यामेवैतदीदृशम्।। (पद्मचरित, २८/३८)
मैंने चित्रपट में उसका यह केवल आकारमात्र ही अंकित किया है। उसका जो लावण्य है, वह उसी में है, अन्यत्र सुलभ नहीं।
'अभिज्ञानशाकुन्तल' के चतुर्थ अंक में चमेली (नवमालिका) का आम्रवृक्ष से मिलना दरसाया गया है। 'पद्मचरित' में भी माधवीलता अपने हिलते हुए पल्लव से मानों सौहार्द के कारण ही आम का स्पर्श करती है।
'अभिज्ञानशाकुन्तल' के दूसरे अंक में छाया में झुण्ड बनाकर बैठे हुए मृगों की कल्पना की गई है तथा वराहों द्वारा नागरमोथा उखाड़ना वर्णित है। ‘पद्मचरित' में भी मृगियों और मृगशावकों को अपने मध्य में बैठाये हुए मृगों तथा दाढ़ों में मोथा-लगे वराहों का वर्णन किया गया है :