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________________ जैन वाङ्मय के अध्येताओं का अन्वेषणीय विलुप्त जैनागम-एक दिशा ब्र. संदीप जैन 'सरल' तीर्थंकरों की पवित्र वाणी गणधरों ने सुनी और उसे ग्रन्थरूप में गूंथकर अपने शिष्यों को सुनाते रहे। इस प्रकार श्रुतानुश्रुत परम्परा से उनके दिव्य उपदेश भव्यजनों को समानता का पाठ पढ़ाते रहे । श्रुत सुने गये, उपदेश स्मृति द्वारा नूतन पीढ़ी के लिये मौखिक ही प्राप्त होते रहे। काल बदला स्मरण शक्ति क्षीण होने लगी, तब युगप्रधान आचार्यों ने उन छिन्न-भिन्न उपदेशों को लिपिबद्ध किया। उन सूत्रात्मक उपदेशों को मूल आधार बनाकर अनेकानेक आचार्यों एवं जैन साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में जैनवाङ्मय को समृद्ध किया है। धर्म जाति और समाज की स्थिति में जहाँ संस्कृति मूल कारण है, वहीं इनके संवर्धन एवं संरक्षण में साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कृति और साहित्य दोनों जीवन और प्राणवायु सदृश परस्परापेक्षी हैं। जहाँ एक ओर हमारे आचार्यों ने प्रचुर मात्रा में जैन वाङ्मय की रचना की है, तो वहीं दूसरी ओर उदार, मनीषी श्रावकों ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए उन शास्त्रों की हजारों की संख्या में प्रतिलिपियाँ करवाकर हर मंदिर में शास्त्रभण्डारों की स्थापना करवाई। पिछले समयों में बड़े-बड़े उतार-चढ़ाव आये। मुगल साम्राज्य और धर्म विध्वंसिओं ने जैन वाङ्मय और संस्कृति को नष्ट करने में अपनी अहम् भूमिका निभाई है, इस बात के लिये इतिहास साक्षी है। पर हाँ इतना तो अवश्य है कि, उस समय भी यदि संस्कृति, साहित्य और धर्म के प्रेमी नहीं होते तो हमें जो साहित्य सुलभ दिखाई दे रहा है, वह प्राप्त न हो पाता। यह सर्वविदित है कि आज समूचे भारत-वर्ष में हमारे शास्त्र-भण्डार जैनागम से विपुल भरे हैं। बहुत आगम लुप्त होने के बाद भी वर्तमान में उपलब्ध आगम का भी पूर्ण आकलन नहीं हो पा रहा है। साथ ही आज के इस मुद्रण युग में हमारे हस्तलिखित ग्रन्थों की घोर उपेक्षा हुई है। हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। इनमें हमारे आत्मिक उत्थान-पतन की कहानी समाहित है। आज ये पाण्डुलिपियाँ चूहों एवं दीमकों के लिये समर्पित कर दी गई हैं। आज आवश्यकता है निस्वार्थ, समर्पित कार्यकर्ताओं की, जिससे इस अमूल्य धरोहर को सुरक्षित, संरक्षित, प्रचारित और प्रसारित किया जा सके। इतना अवश्य है कि इस दिशा में कार्य करने वाले मनीषियों ने समय-समय पर श्रम-साध्य कार्य भी किया
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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