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________________ अनेकान्त/26 सर्वभाषागर्मित भाषा को किसी एक व्याकरण नियम में बांधना कैसे शक्य होता? यही कारण है कि प्रकृति प्रदत्त प्राकृत भाषा अथवा मेघवर्षण की भांति स्वच्छन्द बिहार करती है। ऐसे में हम कैसे मान लें कि पं. प्रवर आशाधर जी व सहस्रनाम के टीकाकार श्रुत सागर जी महाराज वर्तमान शोधक विद्वानों से ज्ञान अथवा खोज में हीन थे? हमें तो आगम और पूर्वाचार्यों के वाक्य ही प्रमाण हैं। और इसलिए भी कि वे ख्याति लाभ पूजादि की चाह से निर्लिप्त थे और तब मनमाने परिवर्तन करने-कराने में कारण-भूत आर्थिक-पुरस्कारों का युग भी नहीं था। कोई पुरस्कृत तो वचन बदलते हुए भी प्रकाश में आ चुके हैं- जैसी कि समाचार पत्रों में चर्चा माना जाय कि यदि मागध देवों के कारण मागधी नाम पड़ा तो 'अर्ध' कहां से आ गया? क्या वह भाषा अर्धरूप में मागध देवों की थी और अर्धरूप में जिनवर की थी? देव तो सर्वज्ञ होते नहीं तो उनकी भाषा को प्रमाण कैसे माना जाय? वे वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी भी नहीं होते। हेमचन्द एवं वररुचि आचार्यों ने अपने व्याकरणों में कई स्थानों पर शब्दों की रचना में स्वीकृत उस भाषा को 'प्रकृति' कहा है, जिसके सूत्रों से उन्होंने प्राकृत शब्दों की सिद्धि की है। जैसे “वृश्चिक' शब्द बिच्छुओं से बनाने के लिए उन्होंने 'वृश्चिके छ: सूत्र का निर्माण किया। इस सूत्र में मूलभूत संस्कृत भाषा का शब्द है, उस संस्कृत भाषा को प्रकृति कहा-न कि किसी प्राचीन परम्परा रूप ऐसी प्रकृति को, जिससे इंगित मूल भाषा का जन्म हो। हेमचन्द ने तो प्रारम्भ में ही प्राकृत-शब्द सिद्धि में स्वयं के द्वारा अपनाई जाने वाली संस्कृत-भाषा को प्राकृत का मूल घोषित कर दिया। यानी उन्होंने संस्कृत को मूल-प्रकृति मानकर रचना की-इससे अन्य भाषाओं का परिहार हो गया। यदि कोई हिन्दी के 'बिच्छू' शब्द को मूल मानकर 'बिञ्छुओ' बनाना चाहे तो वह उपर्युक्त सूत्र से नहीं बना सकता। वररुचिने 'प्रकृतिशौरसेनी' जैसे जो सूत्र पैशाची और मागधी के संबंध में दिए है, वे भी इसी भाव में दिए हैं कि लोग अधिक प्रयास से बच जाएँ और संस्कृत व्याकरण से सिद्ध शौरसेनी शब्दों के आधार पर शब्दों की रचना करलें, यत दोनों भाषाएँ शौरसेनी की निकटवर्ती हैं। यदि उक्त विधि को अमान्य कर देंगे तो 'शौरसेनी' के प्रसंग में उन्होंने 'प्रकृति संस्कृतं' ऐसा कहा है, उसे भी मानना पड़ेगा और शौरसेनी की अपेक्षा संस्कृत प्राचीन ठहरेगी और शौरसेनी का जन्म संस्कृत से मानना पड़ेगा। जो हमें व जैन शासन को मान्य नहीं है। आशा है विज्ञजन 'प्रकृति शौरसेनी' की रट को छोड़ेंगे-यतः शौरसेनी परवर्ती और प्राकृत का एक भेद है और प्रसंग में प्रकृति का अर्थ उस मूल भाषा शब्द से संबंधित है जिससे प्राकृत शब्द साधा गया है। 00
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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