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________________ अनेकान्त / 20 उन्हें या तो अपना आदिपुरूष मानती हैं या उनसे व्यापक रूप से प्रभावित हैं । यही कारण है कि वे विविध धर्मों के उपास्य, सम्पूर्ण विश्व के विराट् पुरूष और निखिल विश्व के प्राचीनतम व्यवस्थाकार हैं। वैदिक संस्कृति और भारतीय जीवन का मूल सांस्कृतिक धरातल ऋषभदेव पर अवलम्बित है। भारत के आदिवासी भी उन्हें अपना धर्म देवता मानते हैं और अवधूत पंथी भी ऋषभदेव को अपना अवतार मानते हैं। ऋषभदेव के ही एक पुत्र 'द्रविड़' को उत्तरकालीन द्रविड़ों का पूर्वज कहा जाता है। सम्राट भरत के पुत्र अर्ककीर्ति से सूर्यवंश, उनके भतीजे सोमयश से चंद्रवंश तथा एक अन्य वंशज से कुरुवंश चला। पुरा काल के अध्ययन से प्रकट होता है कि ईसा पूर्व चौथी सहस्राब्दि के प्रारंभ में और उसके बाद महान पणि जाति ने लगभग सभी भागों में शान्तिपूर्ण ऐतिहासिक प्रव्रजन किया। इस पणि जाति का अनेकशः स्पष्ट उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद की 51 ऋचाओं में, अथर्ववेद में, एवं यजुर्वेद (बाजसनेयी संहिता) एवं सम्पूर्ण वेदोत्तर साहित्य में हुआ है। ये पणि (जैन) भारत से गए थे। ये अत्यन्त साहसी नाविक, कुशल इंजीनियर और महान शिल्पी थे 1 इन्होंने विश्वभर में अपने राज्य स्थापित किए तथा महल और किले बनवाये । इन्होंने अपना अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार साम्राज्य स्थापित किया और अनेक देशों पर शासन किया। इनका सम्बन्ध सुमेर, मिश्र, बेबीलोनिया, सुषा, उर, एलम आदि के अतिरिक्त उत्तरी अफ्रीका, भूमध्यसागर, उत्तरी यूरोप, उत्तरी एशिया और अमेरिका तक से था । पण लोगों ने ही मध्य एशिया की सुमेर सभ्यता की स्थापना की थी । इन्होंने ही ईसा पूर्व 3000 में उत्तरी अफ्रीका में श्रमण संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया । मध्य एशिया से उरुफ राजवंश का पंचम शासक गिलगमेश लगभग 3600 ईसा पूर्व में दीर्घकालिक यात्रा करके भारत में मोहन जोदड़ो (दिल मन - भारत) की तीर्थयात्रा के लिए गया था, जैसा कि उसके तत्कालीन शिलालेख से प्रगट है । वह श्रमण धर्म (जैनधर्म) का अनुयायी था । तीर्थयात्रा में उसने मोहन जोदड़ो (दिल मन -भारत) में आचार्य उत्तनापिष्टिम जैनाचार्य उत्तमपीठ के दर्शन किए थे जिन्होंने उसे मुक्तिमार्ग (अहिंसा धर्म) का उपदेश दिया था। सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के खिल्दियन सम्राट नेबुचेदनजर ने रेवानगर (काठियावाड़) के अधिपति यदुराज की भूमि द्वारका में आकर रैवताचल ( गिरनार ) के स्वामी नेमीनाथ की भक्ति की थी और उनकी सेवा में दानपत्र अर्पित किया था। दानपत्र पर उक्त पश्चिमी एशियायी नरेश की मुद्रा भी अंकित है और उसका काल लगभग 1140 ईसा पूर्व है। 8 अमेरिका में लगभग 2000 ईसा पूर्व में (आस्तीक - पूर्व युग में) संघपति जैन आचार्य क्वाजल कोटल के नेतृत्व में पणि जैनजाति के श्रमण संघ अमेरिका पहुंचे और तत्पश्चात सैकड़ों वर्षों तक श्रमण समुदाय अमेरिका में जाकर बसते रहे, ऐसा प्रसिद्ध अमरीकी इतिहासकार वोटन ने लिखा है। प्राचीन अमेरिकी संस्कृति पर
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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