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________________ विदेशों में जैनधर्म -डॉ. गोकुलप्रसाद जैन जैनधर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। जैनधर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव का जन्म स्वायंभुव मनु की पांचवी पीढ़ी में हुआ था। स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र अग्रीघ्र, अग्रीघ्र के पुत्र अजनाभ (नाभिराय ) और नाभिराय के पुत्र ऋषभ थे? आदिपुराण में मनु को ही कुलकर कहा गया है। ऋषभ के पिता अजनाभ (नामिराय) अंतिम कुलकर थे जिनके नाम से वह देश अजनाभ वर्ष कहलाता था तथा तदुपरान्त ऋषभपुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर भारतवर्ष कहलाया । जैन साधु अतिप्राचीन काल से ही समस्त पृथ्वी पर विद्यमान थे, जो संसार त्यागकर आत्मोदय के पवित्र उद्देश्य से एकान्त वनों और पर्वतों की गुफाओं में रहा करते थे 12 जैन काल गणना के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव के अस्तित्व का संकेत संख्यातीत वर्षो पूर्व मिलता है। भारतीय वाङ्मय के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में सर्वत्र 141 ऋचाओं में ऋषभदेव की स्तुति और जीवनपरक उल्लेख मिलते हैं । अन्य वेदों, उपनिषदों एवं प्रायः सभी पुराणों-उपपुराणों आदि में भी ऋषभदेव के जीवन प्रसंगों के उल्लेख प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। उनमें अर्हन्तों, वातरशना मुनियों, यतियों, व्रात्यों, विभिन्न तीर्थकरों तथा केशी ऋषभदेव संबंधी स्थल इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं 13 ऋषभदेव और उनकी परम्परा में हुए अन्य 23 तीर्थकरों द्वारा प्रवर्तित महान् श्रमण-संस्कृति और सभ्यता का उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में प्रचार-प्रसार तो प्राग्वैदिक काल में ही हो गया था। सर्वप्रथम तो वह संस्कृति भारत के अधिकांश भागों में फैली और तदुपरान्त वह भारत की सीमाओं को लांघकर विश्व के अन्य देशों में प्रचलित हुई और उसका विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार हुआ। यह संस्कृति यूरोप, रूस, मध्य एशिया, लघु एशिया, मैसोपोरामिया, मिश्र, अमेरिका, यूनान, बेबीलोनिया, सीरिया, सुमेरिया, चीन, मंगोलिया, उत्तरी और मध्य अफ्रीका, भूमध्यसागर, रोम, ईराक, अरबिया, इथोपिया, रोमानिया, स्वीडन, फिनलैंड, ब्रह्मदेश, थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, श्रीलंका आदि संसार के सभी देशों में फैली तथा 4000 ईसा पूर्व से लेकर ईसा काल तक प्रचुरता से संसार भर में विद्यमान रही । वस्तुतः आदि महापुरूष ऋषभदेव विश्व संस्कृति और अध्यात्म के मानसरोवर हैं जिनसे संस्कृति और अध्यात्म की विविध धाराएँ प्रवाहित हुईं और विश्व भर में पल्लवित, पुष्पित और सुफलित हुई। विश्व में फैली प्रायः सभी अध्यात्म धाराएँ
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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