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अनेकान्त/18 बांट दिया है मानो वह हमारी बपौती है, दूसरे का उस पर कोई अधिकार नहीं है। जब साधु ही गुट बाजी में फंस गए हैं तो उनकी शिष्य मण्डली भी गुटबाजी का शिकार हुए बिना कैसे रह सकती है? उन्होंने न केवल शास्त्रों को बांट दिया है, अपितु आगम के मूल शब्दों के साथ भी छेड़खानी शुरू कर दी है। ऐसे में कहां जायेंगे हम और कहां जायेगा हमारा धर्म? प्राणिमात्र और जीवमात्र के कल्याण और आत्म स्वातन्त्र्य की बात करने वाला हमारा धर्म क्या संकीर्णता, आडम्बर और प्रदर्शन की बेड़ियों में नहीं जकड़ गया है और ऐसा करने में क्या केवल हमारी ही भूमिका नहीं है? सोचें और विचार करें।
-भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा संस्थान
112 ए/ब्लॉक-सी, पॉकेट-सी शालीमार बाग, दिल्ली-110052
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समता-भाव समताभाव रहना ही परम तप है। ज्ञानी जीव समताभाव में सुखसागर को पाते हैं, उसी में मगन हो जाते हैं, उसीके शान्तरस का पान करते हैं, उसी के निर्मल जल से कर्म-मल छुड़ाते हैं। समताभाव एक अपूर्व चन्द्रमा है, जिसके देखने से सदा ही सुखशान्ति मिलती है। समताभाव परम उज्ज्वल वस्त्र है, जिसके पहिनने से आत्मा की परमशोभा होती है। समताभाव एक शीघ्रगामी जहाज है, जिस पर चढ़कर ज्ञानी भवसागर से पार हो जाते हैं। समताभाव रत्नत्रय की माला है, जिसको पहिनने से परमशांति मिलती है। समताभाव परमानन्दमयी अमृत का घर है, जिसमें भीतर से अमृतरस रहते हुए भी वह कभी कम नहीं होता है। जो समताभाव के स्वामी हैं वही परम-तपस्वी हैं। वे शीघ्र स्वतंत्रता को पाकर परमसन्तोषी हो जाते हैं और तृष्णा के आताप से रहित हो जाते हैं।
-स्वतंत्रता सोपान, (ब.सीतल प्रसादजी)
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