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________________ अनेकान्त/15 वहां मंचासीन हो कर आवकों को आत्मोद्धार और आत्मोत्थान का उपदेश देते हैं और उन्हें आत्मा के विकास का पाठ पढ़ाते हैं। मंच पर विराजमान होकर वे धर्म का प्रचार व प्रसार करने की भी बात करते हैं। वस्तुतः आत्म विकास और आत्म कल्याण का जो कार्य स्वयं उनके द्वारा किया जाना चाहिये उसकी अपेक्षा श्रावकों से की जाती है और धर्म के प्रचार प्रसार का जो कार्य श्रावकों द्वारा किया जाना चाहिये उसका बीड़ा उठाया है साधुओं ने। आजकल श्रावकों का मनोबल बड़ा ऊंचा है, वे समाज के ठेकेदारों द्वारा आयोजित बड़े बड़े धार्मिक आयोजनों और प्रदर्शनों में भाग लेकर और उन आयोजनों में मंचासीन साधुओं-मुनियों की जय जयकार कर वह स्वयं को गर्वोन्नत अनुभव करते हैं, मानो उस कार्यक्रम में सम्मिलित हो कर और जय जयकार कर वह श्रावक आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गया है, भले ही जैनधर्म और दर्शन के प्रति उसमें कोई जिज्ञासा नहीं हो। साधु आज मंच के आकर्षण और जयघोषों के मोह जाल में जकडता जा रहा है। साधुओं के सान्निध्य में आज जगह जगह संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं जिनमें साधु अपना पूरा समय देते हैं और अन्त में जनसमुदाय को उपदेश के माध्यम से अपना दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करते हैं। जन सामान्य और संगोष्ठी में उपस्थित विद्वज्जन उनके उपदेशों से कितना लाभान्वित हो रहे हैं-यह उनके आचरण से ही स्पष्ट है। क्योंकि आजकल तो धर्म की या मर्म की कोई भी बात कान से सुनने के बाद हृदय और अन्तःकरण तक पहुंच ही नहीं पाती है। वे तो 'इस कान से सुन और दूसरे कान से निकाल' की कहावत को चरितार्थ कर रहे है। वस्तुतः साधु निःस्पृही होता है, होना भी चाहिये, क्योंकि जयघोष एक प्रकार की लालसा का प्रतीक है जिसकी अन्ततः परिणति परिग्रह में है जो भौतिक होता है जिससे साधु का यथाशक्य बचना चाहिये और समाज का भी दायित्व है कि वह इस भौतिक लालसा जन्य परिग्रह से साधु को मुक्त रखे. किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है। निःसन्देह आजकल साधुओं की सत्प्रेरणा से कतिपय ज्वलन्त विषयों पर संगोष्ठियां या परिसंवाद आयोजित किए जा रहे हैं जिनकी सफलता और सार्थकता को बढ़ चढ़ कर प्रचारित किया जाता है। एक मायने में उन्हें सफल मान भी लिया जाता है। उनमें एक ओर जहां साधुओं के जयघोष का ईंधन प्रज्वलित किया जाता है वहीं दूसरी ओर संगोष्ठी में भाग लेने वाले विद्वज्जन साधु सान्निध्य में अपने प्रति किए जाने वाले स्वागत-सत्कार और माल्यार्पण से गदगद हो दुगने उत्साह से जयघोष करने लगते है। संगोष्ठी या परिसंवाद का आयोजन निश्चय ही किसी विषय के निष्कर्ष पर पहुंचने की एक सार्थक प्रक्रिया है, बशर्ते सीधे सीधे विषय वस्तु की सार्थक चर्चा की जाय और उसे चाटुकारिता की परिधि से दूर रखा जाय। किन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा हैं। इस सम्बन्ध में डा० नेमीचन्द जैन की निम्न टिप्पणी
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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