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अनेकान्त/16 एकदम सटीक प्रतीत होती है-“जयघोष ऐसी हथकड़ियां हैं जो किसी भी भोले भाले साधु को अनजाने में कैद कर लेती है। एक बार कैद साधु को फिर ताजिन्दगी कैद भोगनी पड़ती है। श्रावक वर्ग अपने स्वार्थ के लिए हथकड़ियां डालता है और फिर चाबी गुमा बैठता है। हथकड़ियां खोलने के लिए 'मास्टर की' यद्यपि साधु के पास प्रतिक्षण रहती है, किन्तु एक तो उसे इसका बोध नहीं होता, दूसरे वह उसका उपयोग जानबूझ कर टाल जाता है।"
किसी भी धार्मिक या सामाजिक आयोजन या कार्यक्रम की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। किन्तु उसकी सफलता और सार्थकता तब ही मानी जाय जब उसका सुपरिणाम सामने आए। केवल भीड़ इकट्ठा हो जाना और उस भीड़ द्वारा तालियां पीटा जाना तक को ही आयोजन की सफलता की कसौटी नहीं भाना जा सकता। जब तक आयोजन का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो तथा आयोजकों और श्रोताओं के अन्तःकरण का परिसंस्कार नहीं हो, किसी भी प्रकार का आयोजन सफल या सार्थक नहीं माना जा सकता। यहां पर मैं डा. नेमीचन्द जैन की निम्नपंक्तियां सन्दर्भित करना चाहूंगा-"किसी भी संगोष्ठी में सिर्फ किसी विचार या विचार विमर्श का ही जयघोष हो सकता है। उसके सदियों से विकसित ढांचे में जयघोषों और चापलूसियों, रिश्तेदारियों और व्यक्तिगत खुदगर्जियों के लिए कोई हाशिया नहीं है। यदि कोई संगोष्ठी या परिसंवाद के सुनियोजित ढांचे को विकृत या संदूषित करता है तो वह इतिहास के साथ कपट करता है, अतः समाज की स्वाभिमानी मनीषा को उसका विरोध या समाधान करना चाहिये।"
समाज का बड़ा वर्ग आज अहं के विकार से ग्रसित है। उसी अहं की संतुष्टि के लिए वह बड़े बड़े आडम्बर और आयोजन कर उसमें समाज को एकत्र करता है। सम्भवतः यही कारण है कि जैनधर्म आज आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाला धर्म न होकर अत्यन्त सीमित हो गया है। यद्यपि हम सब जानते हैं कि जैनधर्म में प्रतिपादित नियमों का पालन किए बिना आत्म कल्याण कर पाना या मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। धर्म के प्रति आस्थावान या निष्ठावान होने का आशय मात्र इतना नहीं है कि कोई कितने धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित होता है, कितनी बार मन्दिर जाता है या कितनी बार जय जयकार करता है, अपितु दृढ़ आस्थावान वह भव्य जीव है जो स्व-पर को पहचानने का प्रयत्न करता है। स्व-पर को पहचानने का प्रयत्न केवल वह कर सकता है जो अपनी आत्मा का विकास या उत्थान करना चाहता है। वह शरीर में या बाहय आडम्बरों या प्रदर्शनों में नहीं उलझता है। सभी आडम्बरों और प्रदर्शनों से दूर रह कर केवल स्व में रमण और विचरण करता है। आडम्बर और प्रदर्शनों से केवल तब ही दूर रहा जा सकता है जब उसके अन्तः करण में राग-द्वेष की तीव्रता कम हो और धीरे धीरे वह अल्पतर होती जाय। इससे अन्तःकरण में मूच्र्छाभाव और परिग्रहवृत्ति को पनपने का मौका नहीं मिलता और वह भव्य जीव आत्मकल्याण के सोपान पर आरुढ़ होकर धर्म के प्रति आस्थावान,