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________________ अनेकान्त/12 इसी प्रकार निश्चय व्यवहार की खींचातानी में जिनवाणी रूपी माला तोड़ रहे हैं, अविनय कर रहे हैं, अतः मानव को पक्ष व्यामोहता का चश्मा उतार देना चाहिये तभी यथार्थता का ज्ञान होगा। पक्षपाती अपनी दूर दृष्टि का उपयोग नहीं कर सकता उसे अपनी एवं अपनी नाक की लगी रहती है जिससे वास्तविकता समझ में नहीं आती। उन्हें हंस से शिक्षा लेनी चाहिये। हंस में यह विशेषता होती है कि दूध पानी को मिला दो तो वह दूध ग्रहण कर लेता है पानी छोड़ देता है। वह यह नहीं कहता मुझे पानी मिला दूध नहीं चाहिये पर अपनी विवेक बुद्धि से पानी छोड़ देता है दूध ग्रहण कर लेता है। उसी प्रकार एकान्त को न पकड़ अनेकान्त का सहारा लेना चाहिये। व्यवहार एवं निश्चय द्वारा वस्तु के स्वरूप को समझने की कोशिश करना चाहिये। वस्तुतः व्यवहार, निश्चय, पाप, पुण्य, निमित्त, उपादान, द्वादशांग वाणी के ही अंग हैं। इनमें विवाद के लिये कोई स्थान ही नहीं है, पर वर्तमान में लोग एक एक नय को अपनत्व का जामा पहिना कर धर्म की प्रभावना में बाधक बन रहे है, लोक में भी बदनाम होते हैं। दूसरी समाज यही तो कहती है कि इन धर्मात्माओं से हमी अच्छे हैं जो भाई को भाई तो समझते हैं। इन लोगों के समान आपस में लड़ते तो नहीं। एक नय को लेकर प्रवचन नहीं होना चाहिये। प्रवचन में दोनों ही नयों का उपयोग होना चाहिये, इससे विरोध नहीं होता । न्याय की कसौटी पर भी खरा उतरता है। जैसे जिसकी एक आंख फूटी हो उसको सुमुखी नहीं कहा जायेगा। तभी तो आचार्यों ने उसे मिथ्यादृष्टि कहा है। देखो पक्षी के दो पंख होते हैं, दोनों पंखों से वह उड़ता है। यदि एक पंख बेकार हो जाये, टूट जाये तो वह उड़ने में असमर्थ ही होगा। जब हर जगह दो दृष्टियों का प्रयोग होता है फिर धर्म में एक दृष्टि क्यों? पैसा कमाने में एक दृष्टि क्यों नहीं, भोजन करने में एक दृष्टि क्यों नहीं? सोचो तुम्हारे दो हाथ हैं, दो पांव हैं, क्यों दोनों ही कार्यकारी हैं, एक नहीं। इसी से आचार्यों ने कहा है कि निश्चय के बिना व्यवहार कार्यकारी नहीं एवं व्यवहार के बिना निश्चय पंगु है, थोथा है, अग्राह्य है। अतः विवादों से बचना है तो अनेकान्त ही एक ऐसा अस्त्र है जो समन्वय सहिष्णुता को जगाकर, बिखरे हुए मोतियों को एक माला में पिरोकर मानव को मानवता का पाठ पढ़ाता है, दुनियाँ के विवादों को निपटा कर सरलता, समता जगाता है। बन्धुओं, यह संसार है, यहां पर बिना कार्य किये गुजारा नहीं। यहां कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा, इसलिये आचार्यों ने चार पुरुषार्थ करने योग्य कार्य बताये हैं जिन्हें अशुभ से.बचने के लिये एवं रोजी रोजी रोटी चलाने के लिये करना आवश्यक है जिसमें धर्म पहले एवं मोक्ष बाद में कहा है। इसका सार भी यही है कि पहले मानव का करणीय कार्य धर्म है, धर्म के द्वारा ही अर्थ, काम अंत में मोक्ष की प्राप्ति होगी। धर्म के बिना ये चारों पुरूषार्थ अकार्यकारी हैं। यहाँ करना तो
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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