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________________ अनेकान्त/11 है, तभी तो आचार्यों ने व्यवहार को निश्चय का प्रतिपादक कहा है। इसी का आधार लेकर स्याद्वाद, या सापेक्षता का सिद्धान्त आचार्यों ने कहा है। निश्चय नय की सत्यता इसी सद्भूत व्यवहार से है, अगर इस नय को भुला दिया जाये तो निश्चय नय को भूलना होगा, निश्चय नय की कोई कीमत नहीं होगी। सदभूत व्यवहार नय से ही यह निश्चयनय राजा बना है। राजा का विरोध नहीं होता, राजा कभी दो नहीं होते इसलिये आचार्यों ने निश्चयनय को राजा एवं व्यवहार नय को मंत्री की संज्ञा दी है। किसी भी आचार्य ने निश्चय नय का भेद नहीं किया। किसी किसी ने समझाने की वजह से भेद किया है, उन्होंने भी अंत में व्यवहार ही माना निश्चय नहीं। यदि निश्चय के भेद मान लिये तो इसकी अभेदता खतरे में पड़ जायेगी। इस खतरे के निवारणार्थ ही स्याद्वाद अनेकान्त का महत्व है। स्याद्वाद जैन सिद्धान्त की नींव है, जड़ है। इस सिद्धान्त के द्वारा ही व्यवहार, निश्चय प्रमाणिकता का सेहरा कहो सर्टिफिकेट, एक ही बात है प्राप्त करता है। इसके अभाव में नयाभास का सर्टिफिकेट प्राप्त करता है। हे, ठेकेदारी करने वालों! स्याद्वाद "अनेकान्त" को अपनाईये धर्म की उज्वलता को पहचानिये, तभी उद्धार होगा। विवाद बनाये रहोगे तो नर्क ही मिलेगा, जो संसार का महादुख देने वाला अंग है। आज की दुनियाँ में जितने भी विवाद हैं वे सब एकान्तवादिता कहो या हठवाद के ही कारण है, स्याद्वाद मानव को बनाने वाला सिद्धान्त है, प्रेम का संचार करने वाला है, इस सिद्धान्त को मानव आत्मसात् करते तो भाईचारा “सत्वेषु मैत्री" की भावना जागृत होती है। विरोध का परिहार करता है, सत्य अहिंसा पर आधारित है इसे तन, मन, धन देकर भी अपनाना चाहिये। संसार में नाना प्रकार के जीव है अनेक गुण है, धर्म है उनमें विरोध न हो का संकेत स्याद्वाद दृष्टि से देखना, उस पर अलग-अलग विचार करने की शिक्षा देता है। स्याद्वाद सहिष्णुता, विशाल हृदयता, विशाल मस्तिष्क बनाने का आदर्श मानवों के सामने उपस्थित करता है। वह शिक्षा देता है कि आप सच्चे हैं, आपका धर्म सच्चा है। पर याद रक्खो दूसरों को मिथ्या मत समझो। यदि दूसरों को झूठ मान लिया तो आप खुद झूठे बन जाओगे। संसार में इससे सुन्दर इसका मुकाबला करने वाला सिद्धान्त दूसरी जगह नहीं मिल सकता। इस सिद्धान्त के प्रति प्राणीमात्र में श्रद्धा जाग्रत हो जाय तो धर्मान्धता, अनुदारता, अशान्ति, द्वेष, आज भी संसार से समाप्त होकर प्राणी मात्र में प्रेम की भावना बन सकती है। जैन सिद्धान्त ने वस्तु के स्वरूप को समझने, समझाने के लिये अनेकान्त दृष्टि का उपदेश दिया है जिसे न समझकर अपने पक्ष व्यामोह या हठवादिता द्वारा गड़बड़ी पैदा कर विवाद का विषय बना रहे। जैसे धागे में पिरोई गई माला दो व्यक्ति अपनी अपनी ओर खींचा तानी करे तो परिणाम क्या होगा? माला टूट जायेगी,
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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