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धर्म की जड़ पकड़ो
-ले. सिंघई खुशाल चन्द्र जैन आचार्यों ने जैन धर्म को सर्वोदय धर्म कहा है इस धर्म को आचार्यों ने सार्वभौमिकता की ओर ले जाने की कोशिश की, प्राणि मात्र का धर्म बन जाय इसलिये सरलीकरण की कोशिश की, त्यों-त्यों जैनियों के हृदय से जैनत्व का अभाव होता गया। विवेक बुद्धि पर ताला लगता गया, उस ताले को खोलने की धर्म के ठेकेदारों ने कभी कोशिश ही नहीं की जिससे जैन धर्म विवाद के घेरे में आ गया, धर्म के ठेकेदार यही सोचते रहे कि चलो हुआ हमारी रोटी सहजता से सिकती रहे मिलती रहे। धर्म क्या है कैसा है उस ओर लक्ष्य ही नहीं किया। भाई की भाई से दूरी बढ़ती चली गई, धर्म विवादित होता गया।
जिस धर्म का नारा है "शत्रु को शत्रुता से नहीं प्रेम से मारो" उसके पालकों में शत्रुता का बोलवाला है हकीकत से दूर है।
जिस धर्म का नारा है दृष्टि बदलो, आगे बढ़ो, पीछे देखने की कोशिश मत करो उस धर्म के ठेकेदारो में उसका पूर्ण अभाव है।
जिस धर्म का मूल अनेकान्त, अपरिग्रह, अहिंसा है उस धर्म के मानने वाले ठेकेदारों की रूचि ही नहीं तो धर्म कैसे सर्वोदयी, सार्वभौमिकता ग्रहण करे "न धर्मो धार्मिकैबिना" जिस धर्म के जो सिद्धान्त हैं उसका अनुयायी उन सिद्धान्तों पर न चले न माने तो वह धर्म तो पतित होगा ही। यदि ऐसा ही विचार इन ठेकेदारों का है तो मैं क्या कोई भी क्या कर सकता है? यदि ऐसा नहीं चाहते तो धर्म की अनेकांत वादिता को समझना होगा जो समता सहिष्णुता का पाठ पढाता है, बैर भाव को भुलाकर सत्वेषु मैत्री गुणिषुप्रमोदं का मार्ग प्रशस्त करता है।
अनेकान्त उद्बोधन दे रहा कि आप जो कह रहे हैं सत्य है, पर इसके आगे भी कुछ है उसे भी समझने की कोशिश करो तो यथार्थता समझ सकोगे। जिस प्रकार आप अपनी बात को मनवाना चाहते हो उसी प्रकार दूसरे की बात का आदर तो करो। जैन धर्म का सिद्धान्त है पापी से नहीं, पापों से घृणा करों "उसी को मानने वाला व्यक्ति, व्यक्ति से घृणा करे कैसे उचित होगा? जिसने अनेकान्त के सिद्धान्त को अपना लिया उसकी दृष्टि व्यवहार निश्चय पर नहीं रहती, समता कहो समन्वय युक्त हो जाती है। ___ व्यवहार को हेय कहा गया है, पर पूरा व्यवहार हेय है ऐसा भी नहीं है. सद्भूत व्यवहार नय उपादेय है ऐसा सभी आचार्यों ने कहा है। यह सद्भूत व्यवहार ही निश्चयनय को समर्थन करने वाला है, इसी ने निश्चय को निश्चयता प्रदान की