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अनेकान्त/28
15. पूर्ण-नैत्रों के लिए अंजन चूर्ण और शरीर को भूषित करने वाले चूर्ण इन चूर्णो से आहार उत्पन्न करना चूर्ण दोष हैं।'
16. मूलकर्म-अवशों का वशीकरण करना और वियुक्त हुए जनों का संयोग कराना मूलकर्म दोष है।2।
(3) एषणा (अशन) दोष- शंकित, मृक्षित्त, निक्षिप्त, संव्यवहरण (साधारण). दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और व्यक्त के भेद से अशन दोष इस प्रकार
1. शंकित-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य इन चार प्रकार के आहारों के विषय में, अध्यात्म अर्थात् आगम में इन्हें मेरे योग्य कहा है या अयोग्य, इस प्रकार कासंदेह करते हुए, उस संदिग्ध आहार को ग्रहण करना शंकित दोष है।
2. प्रक्षित-चिकनाई युक्त हाथ अथवा बर्तन से या कलछी, चम्मच से दिया गया भोजन म्रक्षित है, मुनि को सदैव इसका परिहार करना चाहिए, क्योंकि इसमें संमूर्छन आदि सूक्ष्म जीवों की विराधना का दोष देखा जाता है।
3. निक्षिप्त- सचित्त, पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति तथा और त्रस जीव-इनके ऊपर रखा हुआ जो आहारादि है, वह छह भेद रूप निक्षिप्त कहलाता है। ऐसे आहार को लेना निक्षिप्त दोष है।
4 पिहित-जो सचित्त (अप्रासुक) वस्तु से अथवा अचित्त (प्रासुक), किन्तु भारी वस्तु से ढका हुआ है, उसे हटाकर जो आहार दिया जाता है और मुनि उसे ग्रहण कर लेते हैं तो वह पिहित दोष है।
5. संव्यवहरण-यदि दान देने के लिए वस्त्र या बर्तन आदि को खींचकर बिना देखे भोजन आदि मुनि को दिया जाता है और वह मुनि उस आहार को ग्रहण कर लेते हैं, तो उनके लिए संव्यवहरण दोष होता है। इस दोष को साधारण दोष भी कहते हैं।
6. दायक-धाय, मद्यपायी, रोगी, मृतक के सूचित सहित, नपुंसक,
1 णेत्तस्सजणचुण्णं भूसणचुण्णं च गत्तसोमयरं।
चुण्णं तेणुप्पादो चुण्णयदोसो हवादि एसो।। मू. आ. गा. 460 2 अवसाण वसियरणं संजोजयण च विप्पजत्ताण।
भणिदं तु मूलकम्मं एदे उप्पादणा दोसा।। वही, गा 481 ३ वही, 462, अं. धर्मा. 5/28 4. वही, गा. 463; वही 5/29 5 वही, गा. 464; वही 5/30 6. वही, गा. 465; वही 5/30 7 सच्चित्तेण व पिहिदं अथवा अचित्तगलगपिहिद च।
त छडिय जं देयं पिहिदं तं होदि बोधत्वो।। मू. आ गा. 466 8. मू. आ.गा. 487. 9. अं. धर्मा. 5/23