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________________ अनेकान्त/7 3. निमित्त-व्यंजन, अंग, स्वर, छिन्न, भूमि, अंतरिक्ष और स्वपन के भेद से निमित्त दोष आठ प्रकार का है। इन आठ निमित्तों के द्वारा श्रावकों को शुभ-अशुभ बतलाकर बदले में उनके द्वारा दिया गया आहार मुनि के ग्रहण करने पर निमित्त नाम का उत्पादन दोष होता है। 4. आजीव-जाति, कुल, शिल्प, तप तथा ईश्वरता के द्वारा जो आजीविका चलायी जाती है, वह आजीव दोष है। 5. वपीनक-कुत्ता, कृपण, अतिथि, ब्राह्मण, श्रमण, पाखण्डी और कौआ, इन्हें दान देने से पुण्य होता है अथवा नहीं, इस प्रकार दाता के पूछने पर 'पुण्य होता है' इस प्रकार यदि मुनि दाता के अनुकूल वचन बोलता है और दाता प्रसन्न होकर उन्हें आहार देता है ओर मुनि उसे ग्रहण कर लेते हैं तो यह वपीनक नामक उत्पादन दोष है। 6. चिकित्सा-कौमार, तनुचिकित्सा, रसायन, विष, भूत. क्षारतन्त्र, शालाकिक, और शल्य इन आठ प्रकार के चिकित्सा शास्त्र के द्वारा जो मुनि ग्रहस्थ को उपकार करके उनसे यदि आहार आदि लेते हैं तो उनके यह आठ प्रकार का चिकित्सा नाम का दोष होता है। ___7-10. क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से. आहार उत्पन कराना यह चार प्रकार का उतपादन दोष है। उदाहरणार्थ-हस्तिकल्प नाम के पत्तन नगर मे किसी साधु ने क्रोध करके आहार का उत्पादन कराकर ग्रहण किया। बनारस मे किसी साधु ने माया करके आहार ग्रहण किया तथा राशियान देश में किसी संयत ने लोभ दिखाकर आहार ग्रहव किया।' 11. पूर्व संस्तुति-तुम दानपति हो अथवा यशस्वी हो इस प्रकार दाता के समक्ष उसकी प्रशंसा करना ओर उसके दान देना भूल जाने पर उसे याद दिलाना पूर्व संस्तुति नाम का दोष है। 12. पश्चात् संस्तुति-आहार आदि दान ग्रहण करनेपर पीछे प्रशंसा करना, पश्चात् संस्तुति नामक दोष है। 13. विद्या-जो साधित सिद्ध है, वह विद्या है, उस विद्या के माहात्म्य से आहार उत्पन्न कराना विद्या नामक उत्पादन दोष है।10 14. मंत्र-जो मंत्र पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाताहै, वह पठित सिद्ध मंत्र है। उस मंत्र की आशा देकर और उसकी महिमा कहकर जो साधु आहार ग्रहण करता है, उसके मंत्र दोष होता है। 1. भ. आगा 232 वि., मू. आ.गा. 449. 2. मू. आ.गा. 449 की वृत्ति 3. वही गा. 450, 4. वही गा. 451 सवृत्ति, 5. मू. आ. गा. 452 6. को घेण य माणेण य मायालोमेण चावि उप्पादो। उप्पादणा य दोसो चदुबिहो होदि णायव्यों।। मू. आ.गा.453 7. दायगपुरदो कित्ती तं दाणवदी जसोधरो वेत्ति। पुवीसथुदि दोसो विस्सरिदं बोधवं चावि।। मू.आ. गा. 454 8. वही, गा. 455 9. वही, गा. 456 10. वही, गा. 457 11. सिद्धे पढिदे में तस्य य आसापदाणकरणेण। तरस य माहाप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु।। मू. आ. गा. 458
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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