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अनेकान्त/29 पिशाचग्रस्त, नग्न, मलमूत्र करके आये हुए, मूर्छित, वमन वाली, अतिबाला, अतिवृद्धा, खाती हुई, गर्भिणी, अंधी, किसी के आड मे खड़ी हुई. बैठी हुई, ऊँचे अथवा नीचे पर खड़ी हुई स्त्री के द्वारा दिया गया आहार दायक दोष युक्त है। इसी प्रकार फूंकना, जलाना, सारण करना (अग्नि में लकड़ियों को डालना), ढकना, बुझाना, लकड़ी आदि को हटाना या पीटना इत्यादि अग्नि का कार्य करके आहार देना भी दायक दोष है तथा लीपना, धोना करके तथा दूध पीते हुए बालक को छोड़कर इत्यादि कार्य करके आकर आहार देना दायक दोष है।।
7. उन्मिश्र-पृथ्वी, जल, हरितकाय, बीज और सजीव त्रस इन पाँचो से मिश्रित हुआ आहार उन्मित्र दोष युक्त होता है।।
8. अपरिणत-तिलोदक (तिल का धोवन), अविध्वस्त अर्थात् अपरिणत जल को ग्रहण करना अपरिणत दोष है।
9. लिप्त-गेरू, हरिताल, सेलखड़ी, मनःशिला, गीलाआटा, कोपल आदि सहित जल-इन वस्तुओं से लिप्त हाथ या बर्तन से आहार देना लिप्त दोष है।
10. व्यक्त-हाथ की अंजुली पुट से बहुत सा आहार गिराते हुए अथवा गिरते हुए दिया गया भोजन ग्रहण कर तथा भोजन करते समय गिराकर आहार ग्रहण करना व्यक्त दोष है। अनगार धर्मामृत में छोटित (त्यक्त) दोष के 5 मेद कहे है6- 1. संयमी के द्वारा बहुत सा अन्न नीचे गिराते हुए थोड़ा खाना, 2. परोसने वाले दाता के द्वारा तक्र आदि देते हुए यदि गिरता हो तो ऐसी अवस्था में ग्रहण करना, 3. मुनि के हाथ से तक्र आदि गिरने पर भी भोजन करना, 4. दोनों हाथों की हथेलियों को अलग करके भोजन करना तथा 5.अरूचिकर भोजन करना छोटित दोष है। संयोजना आदि चार दोष
1. संयोजना-भोजन और पानी को परस्पर मिलाना संयोजना दोष है। अर्थात् परस्पर विरुद्ध वस्तुओं को मिला देना संयोजना दोष हे। जैसे-ठण्डा भोजन उष्ण जल से मिला देना अथवा ठण्डे जल आदि पदार्थ उष्ण भात आदि से मिला देना।
2. प्रमाण- अतिमात्र आहार लेना प्रमाण दोष है। मुनि को उदर के दो
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1. वही, गा. 488471 2 वही, गा. 472 3. वही, गा. 473 4. गेरूप हरिदालेण व सेडीय मणोसिलामपिट्टेण।
सपबालोदणलेवे प त देयं करभायणो लित्तं।। मूल. आ. गा. 474 5. मू. आ. गा. 475 8. भुज्यते बहुपातं यत्करक्षेप्यथवा करात।
गलाद्धित्वा करो व्यक्तत्वाऽनिष्टं वा छोटितं च तत्।। अं. धर्मा./5/317 7. मू. आ. गा. 478; वृत्ति सहित