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________________ अनेकान्त/18 आहार ग्रहण तथा त्याग के कारण-क्षुधा वेदना शान्त करने के लिए, वैयावृत्य के लिए, छह आवश्यक आदि क्रियाओं के लिए, तेरह प्रकार के संयम के लिए तथा प्राणों की और धर्म की चिन्ता के लिए मुनि आहार ग्रहण करते हैं। मुनि बल, आयु, स्वाद, शारीरिक पुष्टि और तेज के लिए नहीं अपितु ज्ञान, संयम और ध्यान के लिये आहार ग्रहण करते हैं।2 आतंक होने पर, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और अचेतन कृत उपसर्ग के आने पर, ब्रह्मचर्य की रक्षणार्थ प्राणिदया, तप और सन्यास के लिए मुनि आहर का त्याग करते हैं। आहार-परिमाण-पुरूष के पेट को पूर्ण रूपेण भरने वाला आहार बत्तीस ग्रास प्रमाण होताहै तथा स्त्रियों के कुक्षिपूरक आहार का प्रमाण अट्ठाइस ग्रास होता है। मूलाचार में भी यही कहा गया है कि एक हजार चावल का एक कवल कहा जाता है अर्थात् बत्तीस ग्रास पुरूष का स्वाभाविक आहार होता है । भ आ मे लिखा है- जैसे ईधन से आग की और हजारों नदियो सं समुद्र की तृप्ति नही होती वैसे ही यह जीव आहार से तृप्त नहीं होता। चिरकाल तक आहार खाकर भी उसकी तृप्ति नहीं होती और इसी कारण उसका मन अत्यन्त व्याकुल रहता है। अत ब्रह्मचर्य के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं होता, क्योंकि आहार में बहुत सुख नहीं है। केवल जिहा के अग्रभाग मे रखने मात्र ही सुख है। अतः प्रतिदिन परिमित और प्रशस्त आहार लेना श्रेष्ठ है, किन्तु अनेक बार आहार लेना या अनेक प्रकार आवास करना ठीक नहीं। साधु के उदर के चार भागों मे से उदर का आधा भाग भोजन से तथा तीसरा भाग जल से पूर्ण करना चाहिए। और चौथा भाग वायु के संचरण के लिए खाली रहना चाहिए। जिससे छह आवश्यक क्रियायें सुख पूर्वक हो सकें। स्वाध्याय, ध्यान आदि मे हानि तथा अजीर्ण आदि रोग न होवे ।10 आहारार्थ गमन-विधि-आहार ग्रहण के लिए जाते हुए साधु को चार हाथ प्रमाण भूमि देखते हुए न अधिक शीघ्रता ओर न अधिक रुक रुककर किसी प्रकार के वेग के बिना गमन करना चाहिए। गमन करते हुए हाथ लटकाए हुए हो, चरण निक्षेप अधिक अन्तराल से न हो , शरीर विकाररहित हो, सिर थोडा झुका हुआ हो, मार्ग जल और कीचड से रहित हो तथा त्रस जीवों और हरितकाय की बहुलता 1 मूलाचार गा 479 अनगार धर्मामृत 5/612 मू आ गा. 481 3. मू आ आ 480 अनगार धर्मामृत 5/64 4. भगवती आराधना गा. 213 5 मू आ. गा 350 की आचार वृत्ति 6 भ आ. गा. 1649 7. भ आ गा. 16488 भ आ गा 1655 9 मू. आ. 10/47 10. अद्धमसवस्स सव्विजणस्स उदरस्स तदियुमदयेण। ताउ सचरणट्ठ चउत्थमवसेसये भिक्ख ।1491 ।। मूलाचार वृत्ति सहित
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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